Sunday, September 13, 2020

फ़ानी बदायूंनी शायरी

कुछ बस ही न था, वर्ना ये इल्ज़ाम न लेते 
हम तुझ से छुपा कर भी तेरा नाम न लेते. 
नजरें न बचाना था, नजर मुझसे मिलाकर, 
पैगाम न देना था तो पैगाम न लेते. 

ना-उमीदी मौत से कहती है अपना काम कर 
आस कहती है ठहर ख़त का जवाब आने को है 

सुने जाते न थे तुम से मिरे दिन रात के शिकवे 
कफ़न सरकाओ मेरी बे-ज़बानी देखते जाओ 

ज़िक्र जब छिड़ गया क़यामत का 
बात पहुँची तिरी जवानी तक 

मौजों की सियासत से मायूस न हो 'फ़ानी' 
गिर्दाब की हर तह में साहिल नज़र आता है 

दुनिया मेरी बला जाने महँगी है या सस्ती है 
मौत मिले तो मुफ़्त न लूँ हस्ती की क्या हस्ती है 

आबादी भी देखी है वीराने भी देखे हैं 
जो उजड़े और फिर न बसे दिल वो निराली बस्ती है 

यूँ चुराईं उस ने आँखें सादगी तो देखिए 
बज़्म में गोया मिरी जानिब इशारा कर दिया 

ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं 
हाए इस क़ैद को ज़ंजीर भी दरकार नहीं 

मुझे बुला के यहाँ आप छुप गया कोई 
वो मेहमाँ हूँ जिसे मेज़बाँ नहीं मिलता 

रोज़ है दर्द-ए-मोहब्बत का निराला अंदाज़ 
रोज़ दिल में तिरी तस्वीर बदल जाती है 

मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख 
रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर न जाए 

यूँ न क़ातिल को जब यक़ीं आया 
हम ने दिल खोल कर दिखाई चोट 

रोने के भी आदाब हुआ करते हैं 'फ़ानी' 
ये उस की गली है तेरा ग़म-ख़ाना नहीं है 

रूह घबराई हुई फिरती है मेरी लाश पर 
क्या जनाज़े पर मेरे ख़त का जवाब आने को है 

जीने भी नहीं देते मरने भी नहीं देते 
क्या तुम ने मोहब्बत की हर रस्म उठा डाली 

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