मन में सपनों को, नहीं जगाता बसंत.
खूनी आंखों से जल , जाता है बसंत,
दु :शासनों से बहुत, घबराता है बसंत.
गौरी खेतों में , जाने से डरती है,
उसकी पायल भी, नहीं छनकती है.
नदियां सी भी अब, नहीं खिलखिलाती है,
हवा सी भी बल, नहीं वो खाती है.
बालों के गजरे को, वो छुपाती है,
आंखों के कजरे को भी ,वो मिटाती है.
घूरती आंखों से, लगता है उसको डर.
औरतों की ज़िंदगी में, अब नहीं आता बसंत.
ना कचनार तन में, दहकते हैं,
ना गुलमोहर ही, मन में महकते हैं.
अमवा भी मन को , नहीं भाता है,
टेसू भी अब ,आंखें चुराता है.
पनघट पर गौरी ,अब नहीं जाती है,
प्यार के गीत भी नहीं, गुनगुनाती है.
दहशतगर्दों से लगता है, उसको डर,
औरतों की ज़िंदगी में, अब नहीं आता बसंत.
रंगों से भी वह, बहुत कतराती है,
उसमें भी खून ,वो बतलाती है.
बच्चों की चीखों से ,दहल जाती है,
रातों को नींदों से, उठ जाती है.
छलती भाषा, लोलुप दृष्टि से, लगता है डर,
बड़ा लफंगा सा आजकल, हो गया है बसंत.
औरतों के आँखों में ,सपने नहीं जगाता बसंत,
औरतों की ज़िंदगी में, अब नहीं आता बसंत,
फूलों के अक्षर, गंध के निवेदन,
कही खो से गये है.
प्रेम की भाषा, मौन की अभिलाषा,
सब सो से गये हैं.
दौड़ती भागती सी कितनी ,
औरतों की ज़िंदगी हो गयी है.
नौकरी, गृहस्थी के बीच में ही,
औरतें बिखर सी गयी है.
सूखे पत्तों से सपने, आंखों से झर रहे हैं.
रस, रूप, गंध, जीवन में, खो से गये हैं.
मन की बातें भी, अब नहीं बताता है बसंत,
औरतों की ज़िंदगी में, अब नहीं आता बसंत.
मेट्रो सी ज़िंदगी, औरतों की, हो सी गयी हैं,
रिश्तों की ख़ुशबू, कही खो सी गयी है.
ज़िंदगी जाने कितने, मोड़ मुड़ रही है,
उम्र की तितलियां, हाथों को छोड़ रही हैं,
चिड़िया की चहचहाट, जंगल में ही छूट गयी है,
माल रेस्रा के शौक में, ज़िंदगी ख़ुद को भूल गयी है.
दिल का दरवाजा भी, अब नहीं खटखटाता बसंत,
कैलेंडर की तारीखों में ही, नजर आता है बसंत.
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