Monday, September 28, 2020

ग़म की घड़ी को भी ख़ुशी से गुज़ार दे &..

उन्हें ये फिक्र है हर दम नई तर्ज़ ऐ जफा क्या है, 
हमें ये शौक है देखें सितम की इम्तिहाँ क्या है! 
-भगत सिंह 

दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे 
जो ग़म की घड़ी को भी ख़ुशी से गुज़ार दे 
-दाग़ देहलवी

सजाकर मैयते उम्मीद नाकामी के फूलों से 
किसी बेदर्द ने रख दी मेरे टूटे हुए दिल में 


छेड़ ना ऐ फरिश्ते तू ज़िक्रे ग़मे जानाना
क्यूं याद दिलाते हो भूला हुआ अफ़साना 
 
नशा पिला के गिराना तो सबको आता है
मज़ा तो जबकि गिरतों को थाम ले साक़ी
- ग़ालिब 


कहूं किससे मैं कि क्या है, शबे ग़म बुरी बला है 
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता 
- ग़ालिब

न पूछ 'इक़बाल' का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की 
कहीं सर-ए-राहगुज़ार बैठा सितम-कश-ए-इंतिज़ार होगा 
- अल्लामा इक़बा

रहेगी आबोहवा में ख़याल की बिजली
ये मुश्त ख़ाक है फ़ानी रहे रहे न रहे ।
-बृज नारायण चकबस्त

ख़ुदा के आशिक़ तो हैं हज़ारों बनों में फिरते हैं मारे मारे 
मैं उस का बंदा बनूँगा जिस को ख़ुदा के बंदों से प्यार होगा 
-अल्लामा इक़बाल

मैं वो चिराग हूं जिसको फरोगेहस्ती में 
करीब सुबह रौशन किया, बुझा भी दिया 

औरों का है पयाम और मेरा पयाम और है 
इश्क़ के दर्द-मंद का तर्ज़-ए-कलाम और है 
- अल्लामा इक़बाल

तुझे शाख-ए-गुल से तोड़ें ज़हे-नशीब तेरे
तड़पते रह गए गुलज़ार में रक़ीब तेरे

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे 
क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और 
-मिर्ज़ा ग़ालिब

वहीं बैठे रहो, बस दूर ही से बात करते हैं 
जफ़ा कैसी, वफ़ा से भी तुम्हारी हम तो डरते हैं

दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं 
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाए क्यूँ 
-मिर्ज़ा ग़ालिब

आह करूं तो जग जले, और जंगल भी जल जाए 
पापी जियरा न जले जिसमें आह समाए 

आज क्यों परवा नहीं अपने असीरों की तुझे 
कल तलक तेरा भी दिल महरो वफ़ा का बाब था 

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