तेरी तस्वीर लगा दी है तो घर लगता है
अपना चेहरा तलाश करना है
गर नहीं आईना तो पत्थर दे
उठी निगाह तो अपने ही रू-ब-रू हम थे
ज़मीन आईना-ख़ाना थी चार-सू हम थे
ख़मोश हो गए इक शाम और उसके बाद
तमाम शहर में मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू हम थे
क्यों ये सैलाब सा है आंखों में
मुस्कुराए थे हम ख़याल आया.
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