Monday, September 14, 2020

तेरी तस्वीर लगा दी है तो घर लगता है

एक वीराना जहां उम्र गुज़ारी मैंने
तेरी तस्वीर लगा दी है तो घर लगता है

अपना चेहरा तलाश करना है
गर नहीं आईना तो पत्थर दे

उठी निगाह तो अपने ही रू-ब-रू हम थे
ज़मीन आईना-ख़ाना थी चार-सू हम थे

ख़मोश हो गए इक शाम और उसके बाद
तमाम शहर में मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू हम थे

क्यों ये सैलाब सा है आंखों में
मुस्कुराए थे हम ख़याल आया. 

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