Saturday, September 26, 2020

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा

बदनाम रहे बटमार* मगर, घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्हन सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

दो दिन के रैन-बसेरे में, हर चीज़ चुराई जाती है
दीपक तो जलता रहता है, पर रात पराई होती है 

गलियों से नैन चुरा लाई, तस्वीर किसी के मुखड़े की
रह गये खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा

जुगनू से तारे बड़े लगे, तारों से सुंदर चाँद लगा
धरती पर जो देखा प्यारे, चल रहे चाँद हर नज़र बचा

उड़ रही हवा के साथ नज़र, दर-से-दर, खिड़की से खिड़की
प्यारे मन को रंग बदल-बदल, रंगीन इशारों ने लूटा

हर शाम गगन में चिपका दी, तारों के अधरों की पाती
किसने लिख दी, किसको लिख दी, देखी तो, कहीं नहीं जाती

कहते तो हैं ये किस्मत है, धरती पर रहने वालों की
पर मेरी किस्मत को तो, इन ठंडे अंगारों ने लूटा

जग में दो ही जने मिले, इनमें रूपयों का नाता है
जाती है किस्मत बैठ जहाँ, खोटा सिक्का चल जाता है

संगीत छिड़ा है सिक्कों का, फिर मीठी नींद नसीब कहाँ
नींदें तो लूटीं रूपयों ने, सपना झंकारों ने लूटा

वन में रोने वाला पक्षी, घर लौट शाम को आता है
जग से जाने वाला पक्षी, घर लौट नहीं पर पाता है

ससुराल चली जब डोली तो, बारात दुआरे तक आई
नैहर को लौटी डोली तो, बेदर्द कहारों ने लूटा

गोपाल सिंह नेपाली की कविता: मेरी दुल्हन

बटमार 1. रास्ते में राहगीरों या यात्रियों को लूटने वाला व्यक्ति या गिरोह; ठग; दस्यु 2. छापामार; कज़्ज़ाक।

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