बिना स्वार्थ के सबको सुख दे क्या उसकी यही रियासत थी
वो कुल्हाड़ी की चोटों को कैसे अपनों से सह सकता है
जो पथिकों की थकान काट दे भला वो कैसे कट सकता है
कुछ सीखा है इन वृक्षों से, कुछ सीखना अभी भी बाकी है
शाख कटे तो कट जाने दे अभी झूमना दर्द में बाकी है
गांव की पुरवइया थपेड़ में सावन की बारिश आने दे
मिट्टी की भीनी खुशबू से उपवन मन का खिल जाने दे
मम्मी की लोरी हाथ की रोटी मुझसे कुछ कहना चाह रहीं
दुखती घावों पे ममता की मलहम फिर से बचपन मांग रही
मां की अभिलाषा यही रही कि हम ऊंचे कद पर हो जाएं
हमने भी चाहा बस ममता की डोर पकड़ कर उड़ जाएं
पापा की झप्पी बाग में पत्ती अब मुझको पास बुलाती है
उनके दिल में छिपे प्यार को ये दिल क्यों देख न पाती है
सालों से देख घर की दीवारें मेरे सारे राज जानती हैं
खिड़की खोल के दिल का हाल झांकने का मन ललचाती है
इस भीड़-भाड़ के मेले में ये शहर काटने को दौड़ पड़ा
मेले का खिलौना पापा का, बस उन यादों के दौर रही
पनघट पे बैठकर एक दो पत्थर फिर से फेंका मैं पानी में
बचपन की यादें ताजा हुईं मेरी उस दिन भरी जवानी में
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