Tuesday, September 8, 2020

शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती

शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती
या हमीं को ख़बर नहीं होती

हम ने सब दुख जहां के देखे हैं
बेकली इस क़दर नहीं होती

नाला यूं ना-रसा नहीं रहता
आह यू बे-असर नहीं होती

चांद है कहकशां है तारे हैं
कोई शय नामा-बर नहीं होती

दोस्तो इश्क़ है ख़ता लेकिन
क्या ख़ता दरगुज़र नहीं होती

रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती

बे-क़रारी सही नहीं जाती
ज़िंदगी मुख़्तसर नहीं होती

एक दिन देखने को आ जाते
ये हवस उम्र भर नहीं होती

हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता
हर किसी की नज़र नहीं होती

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