तुम नही हो तो इधर भी अच्छा नहीं लगता
तुम जो घर न हो तो घर अच्छा नहीं लगता ।
अकेले चलना भी कोई चलना है मुसाफिर का
साथ कोई ना हो तो सफर अच्छा नहीं लगता ।
जबसे उनके ख्वाब टूटे है रोज पत्तो की तरह
वीरान दिल में अब उधर भी अच्छा नहीं लगता ।
कहां की दिल्लगी कहां पर रंग ला दे भरोसा नहीं
चढ़े न इश्क तो फिर उम्र भर अच्छा नही लगता।
बहुत याद सताती है तुम्हारी तन्हा रातों में मुझे
सोचता रहता हूं तुम्हे रात भर अच्छा नही लगता।
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