Sunday, December 3, 2023

तक़दीर का क्या

सारी क़वायदें, बेपरवाह जु़स्तुज़ू में लग गई,

और उम्र का क्या, उसे ढलना था, ढल गई।


जवानी इत्मिनान से गुज़र रही थी, गुज़र जाती,

मगर, एक रोज़ ये कमबख़्त नज़र फिसल गई।


कल तक मेरे बाजू में खड़ी परहेज़ी दीवारें थी,

जाने जवां हवाओं के साथ,आज कहाँ बहक गई।


मैंने रखी थी किताबों के बीच, तस्वीरें अपनी,

देखा,मेरे ख़यालों की तरह, वो भी बदल गई।


ख़ुदा का क्या,रईसों के क़रीब, ग़रीबों से फ़ासले,

तक़दीर का क्या, कभी रूठी, कभी संभल गई।

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