1)
हम तो कितनों को मह-जबीं कहते
हम तो कितनों को मह-जबीं कहते
आप हैं इस लिए नहीं कहते
चांद होता न आसमां पे अगर
हम किसे आप सा हसीं कहते
आप के पांव फिर कहां पड़ते
हम ज़मीं को अगर ज़मीं कहते
आप ने औरों से कहा सब कुछ
हम से भी कुछ कभी कहीं कहते
आप के बा’द आप ही कहिए
वक़्त को कैसे हम-नशीं कहते
वो भी वाहिद है मैं भी वाहिद हूं
किस सबब से हम आफ़रीं कहते
2)
पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं
पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं
शाम से तेज़ हवा चलने के आसार से हैं
नाख़ुदा देख रहा है कि मैं गिर्दाब में हूं
और जो पुल पे खड़े लोग हैं अख़बार से हैं
चढ़ते सैलाब में साहिल ने तो मुंह ढांप लिया
लोग पानी का कफ़न लेने को तय्यार से हैं
कल तवारीख़ में दफ़नाए गए थे जो लोग
उन के साए अभी दरवाज़ों पे बेदार से हैं
वक़्त के तीर तो सीने पे संभाले हम ने
और जो नील पड़े हैं तिरी गुफ़्तार से हैं
रूह से छीले हुए जिस्म जहां बिकते हैं
हम को भी बेच दे हम भी उसी बाज़ार से हैं
जब से वो अहल-ए-सियासत में हुए हैं शामिल
कुछ अदू के हैं तो कुछ मेरे तरफ़-दार से हैं
3)
फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की
फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की
इक ताइर का दिल रखने की कोशिश की
कल फिर चांद का ख़ंजर घोंप के सीने में
रात ने मेरी जां लेने की कोशिश की
कोई न कोई रहबर रस्ता काट गया
जब भी अपनी रह चलने की कोशिश की
कितनी लंबी ख़ामोशी से गुज़रा हूं
उन से कितना कुछ कहने की कोशिश की
एक ही ख़्वाब ने सारी रात जगाया है
मैं ने हर करवट सोने की कोशिश की
एक सितारा जल्दी जल्दी डूब गया
मैं ने जब तारे गिनने की कोशिश की
नाम मिरा था और पता अपने घर का
उस ने मुझ को ख़त लिखने की कोशिश की
एक धुएं का मर्ग़ोला सा निकला है
मिट्टी में जब दिल बोने की कोशिश की
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