Friday, July 31, 2020

अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं

अशआ'र मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं 
कुछ शेर फ़क़त उन को सुनाने के लिए हैं 

अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें 
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं 

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की 
वर्ना ये फ़क़त आग बुझाने के लिए हैं 


आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे 
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं 

देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ 
मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं 

ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें 
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं! 

Wednesday, July 29, 2020

फिर सावन रुत की पवन चली तुम याद आए

फिर सावन रुत की पवन चली तुम याद आए
फिर पत्तों की पाज़ेब बजी तुम याद आए

फिर कूजें बोलीं घास के हरे समुंदर में
रुत आई पीले फूलों की तुम याद आए

फिर कागा बोला घर के सूने आंगन में
फिर अमृत रस की बूँद पड़ी तुम याद आए

पहले तो मैं चीख़ के रोया और फिर हंसने लगा
बादल गरजा बिजली चमकी तुम याद आए

दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया रहा
जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आए



पत्थर शायरी

आज कुआं भी चीख़ उठा है
किसी ने पत्थर मारा होगा
- साहिल अहमद


इस दर का हो या उस दर का हर पत्थर पत्थर है लेकिन
कुछ ने मेरा सर फोड़ा हैं कुछ पर मैं ने सर फोड़ा है
- ज़ुबैर अली ताबिश


मारो पत्थर भी तो नहीं हिलता
जम चुका है अब इस क़दर पानी
- नीना सहर


कितने दिल थे जो हो गए पत्थर
कितने पत्थर थे जो सनम ठहरे
- शायर लखनवी


एक ख़बर है तेरे लिए
दिल पर पत्थर भारी रख
- अमीर क़ज़लबाश


पहला पत्थर याद हमेशा रहता है
दुख से दिल आबाद हमेशा रहता है
- साबिर वसीम

पत्थर होता जाता हूं
हंसने दो या रोने दो
- नज़ीर क़ैसर


पत्थर न बना दे मुझे मौसम की ये सख़्ती
मर जाएं मिरे ख़्वाब न ताबीर के डर से
- पिन्हां

पथराए पथराए चेहरे
आंखें पत्थर आंसू पत्थर
- यज़दानी जालंधरी


चांद भी पत्थर झील भी पत्थर
पानी भी पत्थर लगता था
- नासिर काज़मी

धूप को देता हूँ तन अपना झुलसने के लिए

जो भी मिल जाता है घर-बार को दे देता हूँ 
या किसी और तलबगार को दे देता हूँ 

धूप को देता हूँ तन अपना झुलसने के लिए 
और साया किसी दीवार को दे देता हूँ 

Monday, July 27, 2020

अली सरदार जाफरी शायरी

और सारा जमाना देखेगा, 
हर किस्सा मेरा अफसाना है. 
हर आशिक सरदार यहाँ, 
हर माशूका सुल्ताना है. 


तू मुझे इतने प्यार से मत देख 

तू मुझे इतने प्यार से मत देख 
तेरी पलकों के नर्म साए में 
धूप भी चाँदनी सी लगती है 
और मुझे कितनी दूर जाना है 
रेत है गर्म पाँव के छाले 
यूँ दहकते हैं जैसे अंगारे 
प्यार की ये नज़र रहे न रहे 
कौन दश्त-ए-वफ़ा में जलता है 
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे 
तू मुझे इतने प्यार से मत देख 

दिल पे जब होती है यादों की सुनहरी बारिश 

दिल पे जब होती है यादों की सुनहरी बारिश 
सारे बीते हुए लम्हों के कँवल खिलते हैं 
फैल जाती है तिरे हर्फ़-ए-वफ़ा की ख़ुश्बू 
कोई कहता है मगर रूह की गहराई से 
शिद्दत-ए-तिश्ना-लबी भी है तिरे प्यार का नाम 
 

प्यास भी एक समुंदर है

प्यास भी एक समुंदर है समुंदर की तरह 
जिस में हर दर्द की धार 
जिस में हर ग़म की नदी मिलती है 
और हर मौज 
लपकती है किसी चाँद से चेहरे की तरफ़ 

Sunday, July 26, 2020

जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा

जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा

समझौता कोई ख़्वाब के बदले नहीं होगा


अब रात की दीवार को ढाना है ज़रूरी
ये काम मगर मुझ से अकेले नहीं होगा

ख़ुश-फ़हमी अभी तक थी यही कार-ए-जुनूं में
जो मैं नहीं कर पाया किसी से नहीं होगा

तदबीर नई सोच कोई ऐ दिल-ए-सादा
माइल-ब-करम तुझ पे वो ऐसे नहीं होगा

बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूं है परेशां
जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा

-शहरयार 

ये लम्हा ख़ास मेरा, ओढ़ूं या बिछाऊं

ये लम्हा ख़ास मेरा, ओढ़ूं या बिछाऊं
कुछ गज़ ही दूर होगा, जाऊं या बुलाऊं
वो बन के इक समंदर, आगे तो बढ़ा है
मुश्किल में पड़ गया हूं, डूबूं या डुबाऊं
मिसरी की ये डली है, धीरे ही घुली है
कैसा है स्वाद इसका, कह दूं या छुपाऊं
सुन के ही खो गये सब, मेरी ये कहानी
इस मंज़र को संभाले, फूला ना समाऊं
लम्हें ने मात देकर , पूछा वक़्त से यूं
तूने जो भी लिखा है , काटूं या मिटाऊं

दुष्यंत कुमार शायरी

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके—जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सज्दे में नहीं था आप को धोका हुआ होगा

आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं

यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं

यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

लहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है।

हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

आप दीवार गिराने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है

अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था
वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं

एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती

ज़िंदगी जब अज़ाब होती है
आशिक़ी कामयाब होती है

Saturday, July 25, 2020

रहो हमेशा सच्चाई के तुम संग

सच्चाई के संग

रहो हमेशा सच्चाई के तुम संग
काम करो इतने सच्चे , देख दुनिया हो जाए दंग
साथ उनके हमेशा रहो जो रखते अपनी बात सही

कभी न छोड़ो तुम अपना उचित अधिकार
वह सच्चा कहलाता है जो न सहे कभी अत्याचार
साथ उनके हमेशा रहो जो रखते अपनी बात सही

न ही झुकना न ही करना है तुमको समझौता
कभी न देना झूठे सपनों को तुम न्योता
साथ उनके हमेशा रहो जो रखते अपनी बात सही

किसी भी कार्य को करने से पहले जानो बूझो
करो सही गलत की तुम हमेशा पहले पहचान
साथ उनके हमेशा रहो जो रखते अपनी बात सही

चाहे हो अकेले या हो भारी भीड़
बात कहो हमेशा सही ,सीधी रखो अपनी रीढ़
साथ उनके हमेशा रहो जो रखते अपनी बात सही

सच्चाई का संग हमेशा हमको भाता है ,
यह सच्चाई ही तो सबके जीवन में ख़ुशियां लाता है
साथ उनके हमेशा रहो जो रखते अपनी बात सही

जिन बातों को कहना मुश्किल होता है

जिन बातों को कहना मुश्किल होता है,
उन बातों को सहना मुश्किल होता है।

इस दुनिया में रह कर हमने ये जाना,
इस दुनिया में रहना मुश्किल होता है।

जिस धारा में बहना सबसे आसां हो,
उस धारा में बहना मुश्किल होता है।

उसके साथ हमें आसानी है कितनी,
उससे ये भी कहना मुश्किल होता है।

उसके ताने, उसके ताने होते हैं !
मुश्किल से भी सहना मुश्किल होता है।

वो बातें जो कहने में आसान लगें, 
उन बातों का कहना मुश्किल होता है


वो सब बातें जो तुम अक्सर कहते हो,
उन बातों का सहना मुश्किल होता है।

माज़ी की यादें भी ऐसा सूरज हैं,
जिस सूरज का गहना मुश्किल होता है।
मैं अपनी दुनिया का ऐसा सूरज हूँ,
जिस सूरज का गहना मुश्किल होता है।

लगती है ये बहर बहुत आसान मगर,
इसमें ग़ज़लें कहना मुश्किल होता है।

दीपक शर्मा 'deep' की शायरी

अब कोई ख़्वाब नहीं, नींद नहीं, आंखें नहीं
ज़िन्दगी अच्छी-बुरी जैसी भी गुजरे, गुजरे

उसके वालिद नवाब हैं भाई !
उसको हक है हमें भुलाने का

याद आते हैं तेरे होंठ तो हँस पड़ते हैं
भूल जाते हैं तेरी याद में रोना है हमें

किसी का हो के ही मालूम होगा
किसी का क्यूँ कोई होता नहीं है

मानोगे इक बात कहो तो बोलूं मैं 
होने को है रात कहो तो बोलूं मैं?

पांच बजे ही मेरी बारी थी, थी ना?
हुए हैं पौने-सात कहो तो बोलूं मैं !

बूंद-बूंद में खून उतर आया देखो!
कैसी है बरसात, कहो तो बोलूं मैं?

गोया ऐसा खेल नहीं है दुनिया में
शह में बैठी मात कहो तो बोलूं मैं

इंसां हो तो इंसां रहना सीखो, और 
गन्दी-गन्दी बात कहो तो बोलूं मैं?

काले करतब काले धंधे वाले लोग
पूछ रहे हैं ‘ज़ात’ कहो तो बोलूं मैं

केवल आंतें टूट रही हैं बाकी ‘दीप’
अच्छे हैं हालात कहो तो बोलूं मैं?

मानोगे इक बात कहो तो बोलूं मैं 
होने को है रात कहो तो बोलूं मैं?

पांच बजे ही मेरी बारी थी, थी ना?
हुए हैं पौने-सात कहो तो बोलूं मैं !

बूंद-बूंद में खून उतर आया देखो!
कैसी है बरसात, कहो तो बोलूं मैं?

गोया ऐसा खेल नहीं है दुनिया में
शह में बैठी मात कहो तो बोलूं मैं

इंसां हो तो इंसां रहना सीखो, और 
गन्दी-गन्दी बात कहो तो बोलूं मैं?

काले करतब काले धंधे वाले लोग
पूछ रहे हैं ‘ज़ात’ कहो तो बोलूं मैं

केवल आंतें टूट रही हैं बाकी ‘दीप’
अच्छे हैं हालात कहो तो बोलूं मैं?


उपवन सूने मधुबन सूने  
सूनी हो गयी नदी अपार  
सूनी हो गयी गलियाँ बाबुल 
सूने हो गये सब त्यौहार
 
सूनी हो गयी माँग सखी की 
सूना कमरा और ओसार 
सूनी हो गयी फूल-सी दुलहिन 
और दुलहिन का हार-सिंगार

सूनी हो गयी साँझ-दुपहरी
सूनी रजनी और भिनसार
सूने हो गये रहट-मोट और
पुरुअट के वह पहरेदार

सूनी हो गयी तिलहन-दलहन 
सूना कोठा और भखार
सूने हो गये आम के लोप्पे
सूना हुआ लबेदा मार

सूना हो गया नइहर-सासुर
खिचड़ी, कजरी, सोहर-चार
सूनी हुईं जिउतिया माई
सूना पोखर, नहर, कछार

सूने हो गये रास-रचैया
सूनी हुई कदम्ब की डार 
सूना हो गया जमना किनारा 
सूनी नौका बिन पतवार 

सूने हो गये मात-पिता और
सूनी हो गयीं बहिनी चार 
सूना ‘दीप’ और बाती सूनी 
सूना सारा घर-संसार..

उसकी आंखें ख़्वाब का गहना, अए-हए अए-हए क्या कहना
उसकी बातें शहद का बहना, अए-हए अए-हए क्या कहना

उस की नज़ाकत, उसकी शरारत, हक है-हक है, जादू है
उस जोबन का रक़्सां रहना अए-हए अए-हए क्या कहना

उस के गुलाबी आरिज लिखना ‘खिलते गुलों की खुश्बू हैं’
और उसकी ज़ुल्फ़ों पे कहना, अए-हए अए-हए क्या कहना

उसकी हया, उफ उसकी हया और क्या ही हया मक़बूल हया
उस हुस्नां ने लहँगा पहना, अए-हए अए-हए क्या कहना

नाक का तिल और तिल की बनावट गोया लिखावट अरबी, उफ..
और उर्दू का लफ्जे-बरहना, अए-हए अए-हए क्या कहना

उसकी ग़ज़ल और उसका तरन्नुम उसकी ग़ज़ल के काफ़िये हाए
ऐ आलिम! औक़ात में रहना, अए-हए अए-हए क्या कहना

जिसका तसव्वुर है वो बिहारन, उस लड़के का कहना ही क्या
उस लड़के को बस ये कहना ‘अए-हए अए-हए क्या कहना’

पीठ पे गेसू ‘फ़र्श पे नागन’, कान में झुमका ‘फ़लक पे चांद’
किस संदूक का है यह गहना, अए-हए अए-हए क्या कहना

लचक कमर की, मटक नजर की, हँसी कहर की, जानते हो?
उससे अना का परबत ढहना, अए-हए अए-हए क्या कहना

मरने की मेरे वजह हैं कुछ बदले हुए लोग
मय्यत मेरी ले जाना तो कांधा न बदलना

मय्यत भी मेरी निकली तो बलखाते हुए ‘दीप’
जब तक मैं जीया था बड़ा गुलजार जीया था

दुनिया हँसता देखेगी तो पत्थर मारेगी
थोड़ा-थोड़ा मुँह लटकाए रहना पड़ता है

उम्र के छप्पर से टकराती-लुढ़कती, बूँद-बूँद
मौत की हाँड़ी में साहिब! चू रही है जिन्दगी

क्या गजब तौर की मुहब्बत है
खूं-सने कौर की मुहब्बत है
एक घंटे में इश्को-वस्लो-हिज्र?
जी! नये दौर की मुहब्बत है
क्यों मुझे कस रही है गलबहियां
तू किसी और की मुहब्बत है
कल जो शर्मा के साथ? हां!वो ही
अब वो राठौर की मुहब्बत है
जिसका धंधा है बस उदासी का
वो किसी ठौर की मुहब्बत है?
जिस्म उरियां है और दिल उधड़ा?
आह..बिजनौर की मुहब्बत है
दिल के कश्मीर की ये हालत,उफ़
किसके लाहौर की मुहब्बत है

हदीसो-वेद रखे जाएंगे सनद के लिए
सितार ले के पढ़ा जाएगा दीवान मेरा

दीपक शर्मा ‘दीप’

अंगूर के सब मजे किशमिश में आ गए

क्या खूब रंग लाया माशूक का बुढ़ापा   
अंगूर के सब मजे किशमिश में आ गए ❤️ 

Friday, July 24, 2020

समझौता कोई ख़्वाब के बदले नहीं होगा

जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा
समझौता कोई ख़्वाब के बदले नहीं होगा

अब रात की दीवार को ढाना है ज़रूरी
ये काम मगर मुझ से अकेले नहीं होगा

ख़ुश-फ़हमी अभी तक थी यही कार-ए-जुनूं में
जो मैं नहीं कर पाया किसी से नहीं होगा

तदबीर नई सोच कोई ऐ दिल-ए-सादा
माइल-ब-करम तुझ पे वो ऐसे नहीं होगा

बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूं है परेशां
जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा

लकीर शायरी

समझो पत्थर की तुम लकीर उसे
जो हमारी ज़बान से निकला
- दाग़ देहलवी


फैलती जा रही है सुर्ख़ लकीर
जैसे कोई लहू में तर है यहां
- अख़्तर होशियारपुरी


कौन देखेगा हाथ पर क़िस्मत
बस लकीरों का जाल लगता है
- दिलशाद नसीम


पीटते रहना लकीरें है अबस
ग़ौर करना चाहिए अस्बाब पर
- रूमाना रूमी


लकीरों को रौशन सितारे दिए
सितारों को अपना मुक़द्दर किया
- ख़ालिद महमूद


बन के लकीरें उभरे हैं
माथे पर राहों के बल
- बाक़ी सिद्दीक़ी

था समुंदर मिरे सामने
मैं लकीरें बनाता रहा
- मेहदी जाफ़र


सूरज को हथेली पे लकीरों की तमन्ना
अब चांद की थाली में किरन है न दिया है
- शमीम हनफ़ी

लकीर खींच के बैठी है तिश्नगी मिरी
बस एक ज़िद है कि दरिया यहीं पे आएगा
- आलम ख़ुर्शीद


कोई दिमाग़ से कोई शरीर से हारा
मैं अपने हाथ की अंधी लकीर से हारा
- ओबैदुर रहमान

अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को

अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को
मैं हूं तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को

मैं जो कांटा हूं तो चल मुझ से बचा कर दामन
मैं हूं गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को

मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी
ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को

मैं समुंदर भी हूं मोती भी हूं ग़ोता-ज़न भी
कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को
तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुद-परस्ती में कहीं तू न गंवा ले मुझ को

बांध कर संग-ए-वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब
कौन ऐसा है जो अब ढूंढ़ निकाले मुझ को

ख़ुद को मैं बांट न डालूं कहीं दामन दामन
कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को

मैं खुले दर के किसी घर का हूं सामां प्यारे
तू दबे-पांव कभी आ के चुरा ले मुझ को

कल की बात और है मैं अब सा रहूं या न रहूं
जितना जी चाहे तिरा आज सता ले मुझ को

वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊं 'क़तील'
शर्त ये है कोई बांहों में संभाले मुझ को

मैं चाँद को अपने आँगन में उतरने नहीं देता!!

रुसवाई का डर है या अंधेरों से मुहब्बत, खुदा जाने!!
(अब) मैं चाँद को अपने आँगन में उतरने नहीं देता!!

बारिश शायरी

मैं चाँद क़े रू-ब-रु आया भी तो बरसात के मौसम में,
मेरे आँसू बह रहे थे और वो बरसात समझ बैठा।

मेरे घर की मुफलिसी को देख कर 
 बदनसीबी सर पटकती रह गई
 और एक दिन की मुख़्तसर बारिश के बाद 
 छत कई दिन तक टपकती रह गई.

वो भी क्या शाम थी बरसे थे टूट के
बादल जुलाई के हर जगह 
हाथों में छतरियां दोनों के थी 
मगर भीगे थे दोनों ही बेवजह


अब कौन घटाओं को, घुमड़ने से रोक पायेगा,
 ज़ुल्फ़ जो खुल गयी तेरी, लगता है सावन आयेगा

मेरे घर की मुफलिसी को देख कर 
 बदनसीबी सर पटकती रह गई
 और एक दिन की मुख़्तसर बारिश के बाद 
 छत कई दिन तक टपकती रह गई.

मेरे घर की मुफलिसी को देख कर 
 बदनसीबी सर पटकती रह गई
 और एक दिन की मुख़्तसर बारिश के बाद 
 छत कई दिन तक टपकती रह गई.

याद आई वो पहली बारिश
जब तुझे एक नज़र देखा था
- नासिर काज़मी


उस ने बारिश में भी खिड़की खोल के देखा नहीं
भीगने वालों को कल क्या क्या परेशानी हुई
- जमाल एहसान


शायद कोई ख्वाहिश...
शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है,
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है
- अहमद फ़राज़


धूप सा रंग है और खुद है वो छाँवो जैसा
उसकी पायल में बरसात का मौसम छनके
- क़तील शिफ़ाई

उस को आना था...
उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
रात भर बारिश थी उस का रात भर पैग़ाम था
- ज़फ़र इक़बाल


टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए
- सज्जाद बाक़र रिज़वी

वो अब क्या ख़ाक आए...
वो अब क्या ख़ाक आए हाए क़िस्मत में तरसना था
तुझे ऐ अब्र-ए-रहमत आज ही इतना बरसना था
- कैफ़ी हैदराबादी


साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को 'अंजुम'
तुम ने इस शहर में क्या आग लगानी है कोई
- अंजुम सलीमी

भीगी मिट्टी की महक...
भीगी मिट्टी की महक प्यास बढ़ा देती है
दर्द बरसात की बूँदों में बसा करता है
- मरग़ूब अली


बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है
- निदा फ़ाज़ली

टूट पड़ती थीं घटाएँ...
टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए
- सज्जाद बाक़र रिज़वी


तमाम रात नहाया था शहर बारिश में
वो रंग उतर ही गए जो उतरने वाले थे
- जमाल एहसानी

कच्ची दीवारों को...
कच्ची दीवारों को पानी की लहर काट गई
पहली बारिश ही ने बरसात की ढाया है मुझे
- ज़ुबैर रिज़वी


घटा देख कर ख़ुश हुईं लड़कियाँ
छतों पर खिले फूल बरसात के
- मुनीर नियाज़ी

दूर तक छाए थे बादल...
दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था
- क़तील शिफ़ाई


दर-ओ-दीवार पे शक्लें सी बनाने आई
फिर ये बारिश मिरी तंहाई चुराने आई
- कैफ़ भोपाली

बरस रही थी...
बरस रही थी बारिश बाहर
और वो भीग रहा था मुझ में
- नज़ीर क़ैसर


अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की
- परवीन शाकिर

मैं कि काग़ज़ की एक...
मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे
- तहज़ीब हाफ़ी
 

मैं चुप कराता हूँ हर शब उमडती बारिश को
मगर ये रोज़ गई बात छेड़ देती है
- गुलज़ार

1.
कश्मकश कुछ इस कदर है जिंदगी में
कि कोई दुआ भी उसे सुलझा न सकी,
दिल में लगी है आग कुछ इस तरह से
आँखों से होती बारिश भी इसे बुझा न सकी।
2.
कब से दबा रखी है दिल में
काश पूरी ख्वाहिश हो जाए
मिल जाए वो हमें उम्र भर के लिए तो
दिल की इस बंजर धरती पर खुशियों की
बारिश हो जाए।
3.
सींचता रहा मैं जिस रिश्ते को
प्यार के नीर से
गलतफहमियों की बारिश में
मिट गए वो तकदीर से।
4.
लिपट रही है पाँव में
सर पे जो चढ़ रही थी
जब-जब पड़ी थी बारिश
धूल अपनी फितरत बदल रही थी।
5.
जरूर दिल किसी ने बादलों का भी दुखाया होगा,
वर्ना इतनी शिद्दत से बरसता कौन है।
6.
ऋतुओं ने अपना रुख कुछ इस तरह से बदला है
कि आज ये बदल बेमौसम ही बरसा है,
बहुत मुद्दत की दुवाओं के बाद मिले हो तुम
क्या बतायें तुमसे मिलने के लिए
ये दिल कितना तरसा है?
7.
अमीरों के महल पर तो कोई असर न होगा
डर तो गरीब की झोंपड़ी के बहने का है,
बदल का तो काम है बरसना
सवाल तो उस बरसात में डटे रहने का है।
8.
खिल उठे ये पेड़ और पौधे
छाई चारों ओर हरियाली है,
सावन में पड़ती इस बारिश की
अदा ही बहुत निराली है।

9.
दूर हुए तुझसे अरसा हो गया
मगर ये बारिश आज तुम्हारी याद दिला रही है,
दिल का हर अरमान हो चुका है ठंडा
और सीने में एक अजीब सी आग जल रही है।
10.
बड़ी मुद्दतों से जो हम चाहते थे आज वो ही बात हो गयी,
तुम क्या मिले जो हमें जिंदगी में खुशियों की बरसात हो गयी।
11.
जमीं को चूमने जो आसमाँ से निकली वो
समां गयी इस कदर की उसका कोई वजूद न रहा।
12.
सफेदपोश जो बैठे हैं काले धंधे करके
वो डरते हैं कहीं उनके राज न खुल जाएँ,
रोकते हैं वो इस वजह से सच्चाई की बारिश को
कहीं इस बरसात में उनके झूठ न धुल जाएँ।
13.
सारी शब होती रही अश्कों की बरसात बेइन्तेहाँ
आँखें सूख चुकी थीं सहर होते-होते।
14.
काली घटाओं ने जब-जब धरती को पानी से भिगाया है,
मेरा बचपन हर बार लौट कर मेरे सामने आया है।
15.
अश्कों की बारिश में डूब गया हर अरमान मेरा
जिंदगी के दरिया में अब तैरने कि ख्वाहिश न रही।

Wednesday, July 22, 2020

मीर हसन की गजलें

आज दिल बे-क़रार है क्या है ....

आज दिल बे-क़रार है क्या है
दर्द है इंतिज़ार है क्या है
जिस से जलता है दिल जिगर वो आह
शोला है या शरार है क्या है
ये जो खटके है दिल में काँटा सा
मिज़ा है नोक-ए-ख़ार है क्या है
चश्म-ए-बद-दूर तेरी आँखों में
नश्शा है या ख़ुमार है क्या है
मेरे ही नाम से ख़ुदा जाने
नंग है उस को आर है क्या है
जिस ने मारा है दाम दिल पे मिरे
ख़त है या ज़ुल्फ़-ए-यार है क्या है
क्यूँ गरेबान तेरा आज 'हसन'
इस तरह तार-तार है क्या है 

दिलबर से हम अपने जब मिलेंगे ...

दिलबर से हम अपने जब मिलेंगे
इस गुम-शुदा दिल से तब मिलेंगे
ये किस को ख़बर है अब के बिछड़े
क्या जानिए उस से कब मिलेंगे
जान-ओ-दिल-ओ-होश-ओ-सब्र-ओ-ताक़त
इक मिलने से उस के सब मिलेंगे
दुनिया है सँभल के दिल लगाना
याँ लोग अजब अजब मिलेंगे
ज़ाहिर में तो ढब नहीं है कोई
हम यार से किस सबब मिलेंगे
होगा कभी वो भी दौर जो हम
दिलदार से रोज़-ओ-शब मिलेंगे
आराम 'हसन' तभी तो होगा
उस लब से जब अपने लब मिलेंगे .


अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं

अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं 
मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं 

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से 
ये क्यूं घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

या तो सब कुछ ही चाहिए या कुछ भी नहीं

ज़िंदगी तू ने लहू ले के दिया कुछ भी नहीं

तेरे दामन में मिरे वास्ते क्या कुछ भी नहीं

आप इन हाथों की चाहें तो तलाशी ले लें
मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं

हम ने देखा है कई ऐसे ख़ुदाओं को यहां
सामने जिन के वो सच-मुच का ख़ुदा कुछ भी नहीं

या ख़ुदा अब के ये किस रंग में आई है बहार
ज़र्द ही ज़र्द है पेड़ों पे हरा कुछ भी नहीं

दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं

Tuesday, July 21, 2020

ख़्वाबों का हर एक दरीचा तेरे नाम

सावन-रुत और उड़ती पुर्वा तेरे नाम 
धूप-नगर से है ये तोहफ़ा तेरे नाम 

सुर्ख़ गुलाब के सारे मौसम तेरे लिए 
ख़्वाबों का हर एक दरीचा तेरे नाम 

चाँद की आँखें फूल की ख़ुश्बू बहती रात 
क़ुर्बत का हर एक वसीला तेरे नाम 


बर्फ़ में फैला शाम धुँदलका तेरे लिए 
हर इक सुब्ह का पहला उजाला तेरे नाम 

हँसती हुई सी तेरी आँखें मेरे लिए 
बहती झील में फूल कँवल का तेरे नाम 


तेरी याद का बहता दरिया मेरे लिए 
चाहत का ये तन्हा जज़ीरा तेरे नाम 

दुनिया-भर में जितने मंज़र अच्छे हैं 
उन का हुस्न और शोर हवा का तेरे नाम 

यहां हर शख़्स हर पल हादसा होने से डरता है

यहां हर शख़्स हर पल हादसा होने से डरता है
खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है


अब क्या बताएं टूटे हैं कितने कहां से हम
ख़ुद को समेटते हैं यहां से वहां से हम



दोस्तों का क्या है वो तो यूं भी मिल जाते हैं मुफ़्त
रोज़ इक सच बोल कर दुश्मन कमाने चाहिए


जितनी बटनी थी बट चुकी ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है



किसी दिन ज़िंदगानी में करिश्मा क्यूं नहीं होता
मैं हर दिन जाग तो जाता हूं ज़िंदा क्यूं नहीं होता


न बोलूं सच तो कैसा आईना मैं
जो बोलूं सच तो चकना-चूर हो जाऊं

आख़िर हटा दीं हम ने भी ज़ेहन से किताबें
हम ने भी अपना जीना आसान कर लिया है


अब क्या कहें नुजूमी के बारे में छोड़िए
अपना तो ये बरस भी कुछ अच्छा नहीं गया

लोग सुनते रहे दिमाग़ की बात
हम चले दिल को रहनुमा कर के


एक ही शख़्स तो जहान में है
ख़ुद को भी गर शुमार कर लिया जाए

-राजेश रेड्डी 

वज़ीर अली 'सबा' लखनवी की गजलें

दिल साफ हुआ आईना-ए-रू नज़र आया...

दिल साफ हुआ आईना-ए-रू नज़र आया
सब कुछ नज़र आया जो हमें तू नज़र आया
हूरों की तरफ़ लाख हो ज़ाहिद की तवज्जोह
खुल जाएँगी आँखें जो कभी तू नज़र आया
बे-ताबी-ए-दिल ने बग़ल-ए-गोर झुकाई
आराम न हरग़िज किसी पहलू नज़र आया
मै-कश मुझ साक़ी के नज़ारे ने बनाया
बिजली सी कमर अब्र सा गेसू नज़र आया
जो बात है हर मज़हब ओ मिल्लत से जुदा है
देखा तो ‘सबा’ सब से अलग तू नज़र आया.



ये उलझ पड़ने की ख़ू अच्छी नहीं..

ये उलझ पड़ने की ख़ू अच्छी नहीं
बे-मुहाबा गुफ़्तगू अच्छी नहीं.
मार डाला इश्तियाक़-ए-यार ने
इस क़दर भी आरज़ू अच्छी नहीं
झुक के मिल सब से ब-रंग-ए-शाख़-ए-गुल
सरकशी ऐ सर्व-ए-जू अच्छी नहीं
ख़ाना-ए-दिल की है रौनक़ इश्क़ से
ज़िंदगी बे-आरज़ू अच्छी नहीं
सख़्त बातों का तेरी क्या दें जवाब
बहस होनी दू-ब-दू अच्छी नहीं
तुझ से बेहतर है अँधेरी क़ब्र की
ऐ शब-ए-ग़म ख़ाक तू अच्छी नहीं
ऐ ‘सबा’ आवारगी से हाथ उठा
ख़ाक उड़ानी कू-बा-कू अच्छी नहीं.



इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं...

इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं
दिल का क़िस्सा तमाम करते हैं
क़हर है क़त्ल-ए-आम करते हैं
तुर्क तुर्की तमाम करते हैं
ताक़-ए-अब्र से उन के दर गुज़रे
हम यहीं से सलाम करते हैं
शैख़ उस से पनाह माँगते हैं
बरहमन राम राम करते हैं
जौहरी पर तेरे दुर-ए-दंदाँ
आब ओ दाना हराम करते हैं
या इलाही हलाल हों वाइज़
दुख़्त-ए-रज़ को हराम करते हैं
आप के मुँह लगी है दुख़्तर-ए-रज़
बातें होंटों से जाम करते हैं
क़ाबिल-ए-गुफ़्तुगू रक़ीब नहीं
आप किस से कलाम करते हैं
रात भर मेरे नाला-ए-पुर-दर्द
नींद उन की हराम करते हैं
ऐ ‘सबा’ क्यूँ किसी का दिल तोड़ें
काबे का एहतिराम करते हैं.

उतना सफ़र आसान रहेगा

जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा

जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगा

उससे मिलना नामुमक़िन है
जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा।

#गोपालदास_नीरज

Monday, July 20, 2020

ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम

ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम

पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम

हंसते जो देखते हैं किसी को किसी से हम
मुंह देख देख रोते हैं किस बेकसी से हम

हम से न बोलो तुम इसे क्या कहते हैं भला
इंसाफ़ कीजे पूछते हैं आप ही से हम

बे-ज़ार जान से जो न होते तो मांगते
शाहिद शिकायतों पे तिरी मुद्दई से हम

उस कू में जा मरेंगे मदद ऐ हुजूम-ए-शौक़
आज और ज़ोर करते हैं बे-ताक़ती से हम

साहब ने इस ग़ुलाम को आज़ाद कर दिया
लो बंदगी कि छूट गए बंदगी से हम

इन ना-तावनियों पे भी थे ख़ार-ए-राह-ए-ग़ैर
क्यूं कर निकाले जाते न उस की गली से हम

मुंह देखने से पहले भी किस दिन वो साफ़ था
बे-वजह क्यूं ग़ुबार रखें आरसी से हम

है छेड़ इख़्तिलात भी ग़ैरों के सामने
हँसने के बदले रोएँ न क्यूं गुदगुदी से हम

वहशत है इश्क़-ए-पर्दा-नशीं में दम-ए-बुका
मुंह ढांकते हैं पर्दा-ए-चश्म-ए-परी से हम

क्या दिल को ले गया कोई बेगाना-आश्ना
क्यूँ अपने जी को लगते हैं कुछ अजनबी से हम

ले नाम आरज़ू का तो दिल को निकाल लें
'मोमिन' न हों जो रब्त रखें बिदअती से हम

Sunday, July 19, 2020

रिश्ते शायरी

या रब मिरी दुआओं में इतना असर रहे
फूलों भरा सदा मिरी बहना का घर रहे
- अज्ञात


बहन की इल्तिजा मां की मोहब्बत साथ चलती है
वफ़ा-ए-दोस्तां बहर-ए-मशक़्कत साथ चलती है
- सय्यद ज़मीर जाफ़री


जब भी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है
मां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
- मुनव्वर राना


घर लौट के रोएंगे मां बाप अकेले में
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में
- क़ैसर-उल जाफ़री


इन का उठना नहीं है हश्र से कम
घर की दीवार बाप का साया
- अज्ञात


उन के होने से बख़्त होते हैं
बाप घर के दरख़्त होते हैं
- अज्ञात

मैं अपने बचपने में छू न पाया जिन खिलौनों को
उन्ही के वास्ते अब मेरा बेटा भी मचलता है
- तनवीर सिप्रा


बेटा बेटी फ़ोन पर अक्सर बताते हैं मुझे
वक़्त मिलता ही नहीं है गांव आने के लिए
- शिवकुमार बिलग्रामी

तुम मेरे इस दिल को पागल मत कहना
अपना बच्चा सब को प्यारा होता है
- सचिन शालिनी


मैं ने हाथों से बुझाई है दहकती हुई आग
अपने बच्चे के खिलौने को बचाने के लिए
- शकील जमाली

एक तुझे नहीं आता, एक मुझे नहीं आता!

तुझे प्यार करना नहीं आता,
मुझे प्यार के सिवा कुछ नहीं आता, 
दुनिया में जीने के दो ही तरीके हैं, 
एक तुझे नहीं आता, एक मुझे नहीं आता! 

वक़्त क्या कहता है

वक़्त क्या कहता है।
आओ सुनाऊं तुम्हें की
वक़्त क्या कहता है।

वक़्त कहता है कि
मैं दिखाई तो नहीं देता
परंतु
दिखा बहुत कुछ जाऊंगा।
अपनापन तो हर कोई
दिखाएगा तुम्हें
परंतु
कौन अपना है ये मैं समझाऊंगा।।
क्योंकि
वक़्त कहता है कि
मैं पल पल में बदल जाऊंगा ।
क्यों बदलता हूं ये
मुझे भी नहीं पता
बस ये पता है कि
वक़्त नाम है मेरा....
और
मैं चाहूं तो
पल में अच्छा तो
पल में खराब भी हो जाऊंगा।
मैं हंसाऊंगा तो
पल में रुला भी जाऊंगा।।
क्योंकि
वक़्त कहता है कि
मैं पल पल में बदल जाऊंगा।
क्यों बदलता हूं ये
मुझे भी नहीं पता
बस ये पता है कि
वक़्त नाम है मेरा
और
मैं चाहूं तो
पल में राजा को भिखारी
तो
पल में भिखारी को राजा
कर जाऊंगा।
मैं रुकूंगा बिल्कुल नहीं
बस चलता ही जाऊंगा,
चलता ही जाऊंगा,
चलता ही जाऊंगा।।
क्योंकि
वक़्त कहता है कि
मैं पल पल में बदल जाऊंगा।
क्यों बदलता हूं ये
मुझे भी नहीं पता
बस ये पता है कि
वक़्त नाम है मेरा
और
मैं चाहूं तो
पल में महल खड़ा कर दूं
तो
पल में महल को ख़ाक
कर जाऊंगा।
बचपन को जवानी में बदलू
तो
पल में जवानी को बुढ़ापा
कर जाऊंगा।।
क्योंकि
वक़्त कहता है कि
मैं किसी के हाथ ना
आऊंगा।
भूलकर भी तुम कभी
किसी की परिस्थिति का
मजाक ना उड़ाना "दोस्तों"
क्योंकि
मैं साधारण से कोयले को भी
पल में हीरा कर जाऊंगा।
क्योंकि
वक़्त कहता है कि
मैं पल पल में बदल
जाऊंगा।
क्यों बदलता हूं ये
मुझे भी नहीं पता
बस ये पता है की
वक़्त नाम है मेरा
और
मैं कहता हूं की
जीना है तो आज
में जियो दोस्तों
क्योंकि
मैं कल कभी नहीं लाऊंगा।
क्योंकि
वक़्त नाम है मेरा
और
मैं फिर ना आऊंगा,
फिर ना आऊंगा,
फिर ना आऊंगा।।

लोग है , समय है , हालात है , बदल जाएंगे ।

लोग है , समय है , हालात है , बदल जाएंगे ।
तू अपने कर्म पथ पर अडिग रह ,
ख़्यालात बदल जाएंगे।
एक दिन जब सफलता तेरे कदम चूमेगी,
यकीन रख, ख़ुद पर तू कर भरोसा ,
हर एक शख़्स के अंदाज़ बदल जाएंगे।
ये दुनिया है कुछ तो कहेगी ,
ये जालिम चुप कैसे रहेगी ,
कुछ तो तेरी सफलता पर भी उंगली उठाएंगे,
तेरे आगे कुछ , तेरे पीछे कुछ और ही गुनगुनाएंगे।
पीछे छोड़ , तू सफलता की तरफ अपने कदम बढ़ा।
अपनी कामयाबी का शिखर पर परचम लहरा,
देख फिर यही लोग तेरे आगे - पीछे घुमा करेंगे,
कुछ तो इस हद तक गिर जाएंगे तेरे कदम भी चूमा करेंगे।
पर तू अपने आप को अडिग , सरल और कर्मठ बन,
फिर तो भगवान भी तेरी मर्जी तुझसे पूछा करेंगे।
फिर तो भगवान भी तेरी मर्जी तुझसे पूछा करेंगे।

फिर भी ख़ुदा से शिकवा नहीं है कोई।

ज़िन्दगी जीने का आसरा नहीं है कोई,
फिर भी ख़ुदा से शिकवा नहीं है कोई।

पत्थरों में चलकर बड़े हो जाओ बच्चों,
मेरे पास सोने का पालना नहीं है कोई।

रात दिन सहता हूं सितमगर के सितम,
मेरे दिल पे ज़ख़्म हादसा नहीं है कोई।

ये देख लिया मैंने चारों तरफ़ दौड़ कर,
बच के निकलने का रास्ता नहीं है कोई।

जिस पल चाहे चुपचाप थाम ले दामन,
अब मौत से मेरा फासला नहीं है कोई।

हसरतों को बिछुड़े ज़माने हो गए मगर,
पलभर मिलने की कामना नहीं है कोई।

ये सावन भी लौट जाएगा मन मार कर,
मुझे हुक़्म है झूला डालना नहीं है कोई।

रात गए नींद का अहसान क्या करूंगा,
ख़्वाब हक़ीक़त में ढालना नहीं है कोई।

सच का या झूठ का फैसला नहीं करना,
दोस्त बस मुक़दमा हारना नहीं है कोई।

परिंदा शायरी

शाख़-दर-शाख़ होती है ज़ख़्मी
जब परिंदा शिकार होता है
- इन्दिरा वर्मा


देख कर इंसान की बेचारगी
शाम से पहले परिंदे सो गए
- इफ़्फ़त ज़र्रीं


टहनी पे ख़मोश इक परिंदा
माज़ी के उलट रहा है दफ़्तर
- रईस अमरोहवी


परिंदा शाख़ पे तन्हा उदास बैठा है
उड़ान भूल गया मुद्दतों की बंदिश में
- खलील तनवीर


मिरे हालात को बस यूं समझ लो
परिंदे पर शजर रक्खा हुआ है
- शुजा ख़ावर


हमें हिजरत समझ में इतनी आई
परिंदा आब-ओ-दाना चाहता है
- ओबैदुर रहमान

काश ये लफ़्ज़ परों से होते
और 'ख़याल' परिंदा होता
- प्रियदर्शी ठाकुर ख़याल


लुत्फ़ ऊंची उड़ान में क्या है
पूछ लेना किसी परिंदे से
- रूही कंजाही

फड़-फड़ाया मिरे बाहर कोई
और परिंदा मिरे अंदर निकला
- हम्माद नियाज़ी


हवा जब चली फड़फड़ा कर उड़े
परिंदे पुराने महल्लात के
- मुनीर नियाज़ी

Saturday, July 18, 2020

आँगन शायरी

बरस रही है उदासी तमाम आंगन में
वो रत-जगों की हवेली बड़े अज़ाब में है
- फ़ारूक़ इंजीनियर


कौन कहे मा'सूम हमारा बचपन था
खेल में भी तो आधा आधा आंगन था
- शारिक़ कैफ़ी


उस के आंगन में रौशनी थी मगर
घर के अंदर बड़ा अंधेरा था
- क़ैशर शमीम


रोज़ उठ जाती है घर में कोई दीवार नई
इस तरह तंग हुआ जाता है आंगन अपना
- अनवर जमाल अनवर


पंख हिला कर शाम गई है इस आंगन से
अब उतरेगी रात अनोखी यादों वाली
- अनवर सदीद


फैलते हुए शहरो अपनी वहशतें रोको
मेरे घर के आंगन पर आसमान रहने दो
- अज़रा नक़वी

नींद टूटी है तो एहसास-ए-ज़ियां भी जागा
धूप दीवार से आंगन में उतर आई है
- सरशार सिद्दीक़ी


तू किसी सुब्ह सी आंगन में उतर आती है
मैं किसी धूप सा दालान में आ जाता हूं
- ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

आंगन-आंगन जारी धूप
मेरे घर भी आरी धूप
- ज़फ़र ताबिश


इक ढलता सूरज बस्ती का
इक सूना आंगन हस्ती का
- मसूद मिर्ज़ा नियाज़ी

Friday, July 17, 2020

सितारो तुम तो सो जाओ

परेशां रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ
सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हंसो और हंसते-हंसते डूबते जाओ ख़लाओं में
हमीं पे रात भारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही क़िस्मत हमारी है सितारो तुम तो सो जाओ

तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
ये बाज़ी हम ने हारी है सितारो तुम तो सो जाओ

कहे जाते हो रो रो कर हमारा हाल दुनिया से
ये कैसी राज़दारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएंगे
अभी कुछ बे-क़रारी है सितारो तुम तो सो जाओ

-kateel shifai 

सोचा नहीं था कभी.. ..इतनी सुकून भरी होगी ।

सोचा नहीं था कभी,
आसमान से गिरती ये बूंदे..
इतनी सुकून भरी होगी ।
सोचा नहीं था कभी,
पेड़ो पर बैठी ये चिड़िया..
आंखो को इतना लुभाएंगी ।
सोचा नहीं था कभी,
ये पौधों की साधरण पत्तियां भी..
ख़ुद में एक बगीचे सी लगेगी ।
सोचा नहीं था कभी,
ये ज़िन्दगी के कुछ ख़ास लम्हें..
यूँ बिछड़कर सिर्फ़ यादों में सिमटकर रह जाएंगे।।

सितारो तुम तो सो जाओ

परेशां रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ
सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हंसो और हंसते-हंसते डूबते जाओ ख़लाओं में
हमीं पे रात भारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही क़िस्मत हमारी है सितारो तुम तो सो जाओ

तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
ये बाज़ी हम ने हारी है सितारो तुम तो सो जाओ

कहे जाते हो रो रो कर हमारा हाल दुनिया से
ये कैसी राज़दारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएंगे
अभी कुछ बे-क़रारी है सितारो तुम तो सो जाओ

-kateel shifai 

रूमानी शायरी

न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
- बशीर बद्र


दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तिरी याद थी अब याद आया
- नासिर काज़मी


दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तिरी याद थी अब याद आया
- नासिर काज़मी


हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएंगे
अभी कुछ बे-क़रारी है सितारो तुम तो सो जाओ
- क़तील शिफ़ाई


हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएँगे
अभी कुछ बे-क़रारी है सितारो तुम तो सो जाओ
- क़तील शिफ़ाई


तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूं अगर बुरा न लगे
- क़ैसर-उल जाफ़री

इतनी मिलती है मिरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझ को मिरा महबूब समझते होंगे
- बशीर बद्र


सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं
- दाग़ देहलवी

सिर्फ़ उस के होंट काग़ज़ पर बना देता हूं मैं
ख़ुद बना लेती है होंटों पर हंसी अपनी जगह
- अनवर शऊर


इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस किस सेट
मोहब्बत कर के देखो ना मोहब्बत क्यूँ नहीं करते
- फ़रहत एहसास

Thursday, July 16, 2020

तेरी ख़ुशबू से सारा घर महके

भूलना चाहा अगर उस को कभी
और भी वो याद आया देर तक


तेरे आने की जब ख़बर महके
तेरी ख़ुशबू से सारा घर महके


सच बोलने के तौर-तरीक़े नहीं रहे
पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे


तुम उस खामोश तबीयत पे तंज़ मत करना
वो सोचता है बहुत और बोलता कम है

सच्चाई को अपनाना आसान नहीं
दुनिया भर से झगड़ा करना पड़ता है


शे’र तो रोज़ ही कहते हैं ग़ज़ल के लेकिन
आ! कभी बैठ के तुझसे करें बातें तेरी
 
सफ़र में मुश्किलें आएं तो जुर्रत और बढ़ती है
कोई जब रास्ता रोके तो हिम्मत और बढ़ती है


हर एक सितम पे दाद दी हर जख्म पे दुआ
हमने भी दुश्मनों को सताया बहुत दिनों

खुशहाल होना मेरा, अज़ीज़ों से पूछिये
पत्ता हरा हुआ तो शजर को बुरा लगा


एक हम हैं कि ग़ैरों को भी कह देते हैं अपना
एक तुम हो कि अपनों को भी अपना नहीं कहते

-नवाज़ देवबंदी 

हाल में रहा जो तिरा आसरा मुझे

हाल में रहा जो तिरा आसरा मुझे
मायूस कर सका न हुजूम-ए-बला मुझे

हर नग़्मे ने उन्हीं की तलब का दिया पयाम
हर साज़ ने उन्हीं की सुनाई सदा मुझे

हर बात में उन्हीं की ख़ुशी का रहा ख़याल
हर काम से ग़रज़ है उन्हीं की रज़ा मुझे

रहता हूं ग़र्क़ उन के तसव्वुर में रोज़ ओ शब
मस्ती का पड़ गया है कुछ ऐसा मज़ा मुझे

रखिए न मुझ पे तर्क-ए-मोहब्बत की तोहमतें
जिस का ख़याल तक भी नहीं है रवा मुझे

क्या कहते हो कि और लगा लो किसी से दिल
तुम सा नज़र भी आए कोई दूसरा मुझे

बेगाना-ए-अदब किए देती है क्या करूं
उस महव-ए-नाज़ की निगह-ए-आशना मुझे

उस बे-निशां के मिलने की 'हसरत' हुई उम्मीद
आब-ए-बक़ा से बढ़ के है ज़हर-ए-फ़ना मुझे

मग़र यार मेरे तूँ कहाँ दिखाई देता है

जहाँ तक देखूँ ये जहाँ दिखाई देता है
मग़र यार मेरे तूँ कहाँ दिखाई देता है

लहज़ा जो मिलता है मेरी बहन का माँ से
मुझें हर बेटी में एक माँ दिखाई देता है

आँसू बहाकर ज़िस्म से निकालते हैं दर्द
मग़र दिल मे दर्द का निशाँ दिखाई देता है

ये कैसा शहर है न कोई दरख़्त है न छाँव
जहाँ देखो मकाँ ही मकाँ दिखाई देता है

हालत है ख़राब यहाँ दिल-ए-बीमार का
और तुमको मोहब्बत आसाँ दिखाई देता है

एक तरफ़ देखता हूँ आरजू- ए -इंसान
एक तरफ़ इंसानियत फ़ना दिखाई देता है

देखता नहीं कभी भी खुदा को यहाँ रौशन
देखता हूँ जब भी बस माँ दिखाई देता है

Wednesday, July 15, 2020

उधेड़बुन शायरी

लोग सदमों से मर नहीं जाते
सामने की मिसाल है मेरी
- अनवर शऊर


ख़ुद किया फ़ैसला ख़िलाफ़ अपने
मुश्किलों से उसे निकाल दिया
- तैमूर हसन


फ़ैसले के लिए एक पल था बहुत
एक मौसम गया सोचते सोचते
- नक़्श लायलपुरी


मसअला जब भी चराग़ों का उठा
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है
- परवीन शाकिर

 
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ज़िंदगी का अजब मामला है
एक लम्हे में फ़ैसला कीजे
- जौन एलिया


चीर कर दिल को दिल से निकली थी
आह को कामयाब होना था
- शंकर लाल शंकर

अक़्ल कुछ और कर के बैठ रही
इश्क़ ने और फ़ैसले किए थे
- जव्वाद शैख़


फ़ासलों का डर किसे था
पांव पर रस्ते लिखे थे
- पूजा भाटिया

हज़ारों मनाज़िर निगाहों में हैं
रुकोगे कहां फ़ैसला तो करो
- नक़्श लायलपुरी

Tuesday, July 14, 2020

तो ले चलूँ तुम्हें

साधारण जीवन की सिमटती धार पर,
लहरें बनके यदि चलो तुम, तो ले चलूँ तुम्हें ।
कभी ना यह पूछ लेना, किस दिशांओं से आ रहा हूँ,
है कहाँ वह मंजिल मेरी, जिसे धोने मै जा रहा हूँ |
चाहें जितनी भी सहनी पडे पत्थरों की चोट,
बस एक आवांज दुनिया को सुनाई दे सदा कलकल |
साधारण जीवन की सिमटती धार पर,
लहरें बनके यदि चलो तुम, तो ले चलूँ तुम्हें ।
रास्तो में चाहे कितनी भी तुमको मिलेंगे विपदा,
चांहे कितनी भी ऊंची शिला के खण्ड होंगे |
समय काल बनके रास्ता रोंके,
चांहे कितनी भी प्रपातों के भयानक झुँड में,
अनजाने में भी भय न हो, तो ले चलूँ तुम्हें ।
साधारण जीवन की सिमटती धार पर ,
लहरें बनके यदि चलो तुम, तो ले चलूँ तुम्हें ।
हो रही धूमिल चारो दिशाएँ, जैसे रात जगती हो,
घटा की राशियाँ, मानो मन दुखी करके भागती हो |
ऐसे नित्य बदलती प्रकृति की पीड़ा को,
ख़ुशी- ख़ुशी यदि सहने की क्षमता हो, तो ले चलूँ तुम्हें ।
साधारण जीवन की सिमटती धार पर ,
लहरें बनके यदि चलो तुम, तो ले चलूँ तुम्हें ।
जो कड़वाहट है ह्रदय में, उसे भी जीवन का सार बना दूँ,
देख ले यदि एक ज्ञानी, तो उसे मैं सौ बना दूँ,
इस सहजता के पुलकित हो रही साँस में,
प्राण बनकर यदि साथ देती रहो, तो ले चलूँ तुम्हें ।
साधारण जीवन की सिमटती धार पर,
लहरें बनके यदि चलो तुम, तो ले चलूँ तुम्हें ।

उठे मेरी पलकें कत्ले आम न हो जाए

खेल तेरी नजरों का मेरे साथ न खेल
उठे मेरी पलकें कत्ले आम न हो जाए

हुनर अगर है तेरे पास बिछाओ जाल
हुस्न के बगैर क्या खाक है तुम्हारे खयाल

सुनो तुम, कीसे उतारोगे कलम से कागज पर
हमें आँखो से पढकर तो बने हो शायर

तुम्हारी सोच की हदों से वाकिफ है
तुम क्या बयाँ करोगे, कायनात है हम

रहने भी दो यारो क्यूँ हाथ जलना जलाना
हुस्न और इश्क़ का याराना है पुराना

जिंदगी की असलियत शायरी

जैसा दर्द हो वैसा मंज़र होता है,
मौसम तो इंसान के अंदर होता है। 
-अज़ीज़ ऐजाज़ 

अज़ल तो मुफ़्त में बदनाम है ज़माने में,
कुछ उनसे पूछ, जिन्हें ज़िंदगी ने मारा है। 
- फ़ैज़ 

तिरे चराग़ अलग हों, मिरे चराग़ अलग,
मगर उजाला तो फिर भी जुदा नहीं होता। 
- वसीम बरेलवी 

हर चीज़ का खोना भी बड़ी दौलत है,
बेफिक्री से सोना भी बड़ी दौलत है। 
- अमजद हैदराबादी 

मिट्टी का जिस्म ले के चले हो तो सोच लो,
इस रास्ते में एक समंदर भी आएगा। 
- सलीम शाहिद 

ऐसी तारीकियां आंखों में बसी हैं कि 'फ़राज़'
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़। 
-अहमद फ़राज़

लम्हों के अज़ाब सह रहा हूं
मैं अपने वजूद की सज़ा हूं। 
- अतहर नफ़ीस  

कभी मेरी तलब कच्चे घड़े पर पार उतरती है
कभी महफ़ूज़ कश्ती में सफ़र करने से डरता हूं।
- फ़रीद परबती 

मेरी मुट्ठी में सुलगती रेत रख कर चल दिया,
कितनी आवाज़ें दिया करता था ये दरिया मुझे। 
- अज्ञात 

उसकी फ़ितरत में नहीं, रुक के कोई बात सुने,
वक्त आवाज़ है, आवाज़ को आवाज़ न दो। 
- अज्ञात 

इससे बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं,
सब जुदा हो जाएं, लेकिन ग़म जुदा होता नहीं। 
- जिगर मुरादाबादी

Monday, July 13, 2020

सियासत, सियासी शायरी

सिर्फ बाक़ी रह गया बेलौस रिश्तों का फ़रेब
कुछ मुनाफिक हम हुए, कुछ तुम सियासी हो गए
- निश्तर ख़ानकाही

हमें तो अहल-ए-सियासत ने ये बताया है
किसी का तीर किसी की कमान में रखना
- महबूब ज़फ़र

हुकूमत से एजाज़ अगर चाहते हो
अंधेरा है लेकिन लिखो रोशनी है

सरों पर ताज रक्खे थे क़दम पर तख़्त रक्खा था 
वो कैसा वक़्त था मुट्ठी में सारा वक़्त रक्खा था 
- ख़ुर्शीद अकबर

मेरा होना भी जरूरी है....

देखो न लबों की मुस्कान से कितनी दूरी है..
हंसना फिर भी मजबूरी है...
मेरा होना काफी नहीं यार,
मेरा होना भी जरूरी है....
हां ख्वाहिशें भी कुछ अधूरी हैं,
मगर मेरी मुझसे भी तो कितनी दूरी है...
हां औपचारिकताएं तो लगभग पूरी है,
मगर ये जज्बातों की कागज सारी कोरी है..
मेरा होना काफी नहीं यार,
मेरा होना भी जरूरी है....

कितनी शर्मीली लजीली है हवा बरसात की

कितनी शर्मीली लजीली है हवा बरसात की 
मिलती है उन की अदा से हर अदा बरसात की 

जाने किस महिवाल से आती है मिलने के लिए 
सोहनी गाती हुई सौंधी हवा बरसात की 

उस के घर भी तुझ को आना चाहिए था ऐ बहार 
जिस ने सब के वास्ते माँगी दुआ बरसात की 

अब की बारिश में न रह जाए किसी के दिल में मैल 
सब की गगरी धो के भर दे ऐ घटा बरसात की 


देखिए कुछ ऐसे भी बीमार हैं बरसात के 
बोतलों में ले के निकले हैं दवा बरसात की 

जेब अपनी देख कर मौसम से यारी कीजिए 
अब की महँगी है बहुत आब-ओ-हवा बरसात की 

बादलों की घन-गरज को सुन के बच्चे की तरह 
चौंक चौंक उठती है रह रह कर फ़ज़ा बरसात की 


रास्ते में तुम अगर भीगे तो ख़फ़्गी मुझ पे क्यूँ 
मेरे मुंसिफ़ पे ख़ता मेरी है या बरसात की 

हम तो बारिश में खुली छत पर न सोएँगे '' 
आप तन्हा अपने सर लीजे बला बरसात की

नज़ीर बनारसी 

Sunday, July 12, 2020

दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है

दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है

मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है

जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है

ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है

शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूं है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है

सब्ज़ा ओ गुल कहां से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है

हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

हां भला कर तिरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है

जान तुम पर निसार करता हूं
मैं नहीं जानता दुआ क्या है

मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है

आंसुओं की इस क़दर क़ीमत बढ़ा दी जाएगी

मुस्कुराता जो मिला उसको सज़ा दी जाएगी,
आंसुओं की इस क़दर क़ीमत बढ़ा दी जाएगी..

तमाशा शायरी

इश्क़ की ख़ुद-सुपुर्दगी देखी
ख़ुद तमाशा बना तमाशाई
- इफ़्तिख़ार जमील शाहीन


है तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशां या मरी दीवानगी
जो तमाशा करने आया ख़ुद तमाशा हो गया
- गुलज़ार देहलवी

ये जो कुछ हो रहा है शहर भर में
तमाशा है तमाशा कुछ नहीं है
- शहज़ाद अहमद


किस से पूछें तिलिस्म-ए-हस्ती में
हम तमाशा हैं या तमाशाई
- रविश सिद्दीक़ी


हम भी जीने का मोहब्बत में तमाशा कर लें
ज़िंदगी जो है तमाशा तो तमाशा ही सही
- फ़र्ख़न्दा रिज़वी


ये सर-ए-बज़्म मिरी सम्त इशारे कैसे
मैं तमाशा तो नहीं मेरा तमाशा न करो
- शहज़ाद अहमद

आप अपनी हंसी उड़ाता हूँ
ख़ुद तमाशा हूं ख़ुद-तमाशाई
- महेर चंद काैसर


ज़िंदगी तमाशा है और इस तमाशे में
खेल हम बिगाड़ेंगे खेल को बनाने में
- आलम ख़ुर्शीद

क्यूं किसी और को रुस्वा कीजे
अब के अपना ही तमाशा कीजे
- जलील हश्मी


हम जो दीवाने नहीं हो जाते
देखते लोग तमाशा क्या क्या
- जमीलुद्दीन आली

Saturday, July 11, 2020

हो न जाए कहीं अंजाम से पहले अंजाम

जिसे अंजाम तुम समझती हो
इब्तिदा है किसी कहानी की
- सरवत हुसैन


हो न जाए कहीं अंजाम से पहले अंजाम
इस कहानी को इसी तौर से चलने देंगे
- अम्बरीन सलाहुद्दीन


मेरे जिस्म के अंदर ही
शायद मेरा क़ातिल था
- शाहिद अज़ीज़

तेरी सूरत तो कहती है क़ातिल
ख़ुद तिरा इम्तिहान है गोया
- जलील मानिकपूरी

हैरानी शायरी

हर नए हादसे पे हैरानी
पहले होती थी अब नहीं होती
- बाक़ी सिद्दीक़ी


उस ने हर ज़र्रे को तिलिस्म-आबाद किया
हाथ हमारे लगी फ़क़त हैरानी है
- अम्बर बहराईची


अजनबी हैरान मत होना कि दर खुलता नहीं
जो यहां आबाद हैं उन पर भी घर खुलता नहीं
- सलीम कौसर


इतनी सारी यादों के होते भी जब दिल में
वीरानी होती है तो हैरानी होती है
- अफ़ज़ल ख़ान


हैरान मत हो तैरती मछली को देख कर
पानी में रौशनी को उतरते हुए भी देख
- मोहम्मद अल्वी


मुझ को तलाश करते हो औरों के दरमियां
हैरान हो रहा हूं तुम्हारे गुमान पर
- अरशद कमाल

जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगा
- गोपालदास नीरज


सामने रख कर आईना
चेहरे पर हैरानी रख
- ज़िया ज़मीर

फिर दुख जी को लग जाता है
साथ नहीं देती हैरानी
- अरमान नज्मी


कहूं दास्तां मैं गर अपनी और उस की
तो हैरान हो सुन के अपना पराया
- जुरअत क़लंदर बख़्श

जुर्म शायरी

इस शहर में चलती है हवा और तरह की
जुर्म और तरह के हैं सज़ा और तरह की
- मंसूर उस्मानी

वो ख़्वाब क्या था कि जिस की हयात है ताबीर
वो जुर्म क्या था कि जिस की सज़ा है तन्हाई
-ज़िया जालंधरी

लोग समझे अपनी सच्चाई की ख़ातिर जान दी
वर्ना हम तो जुर्म का इक़रार करने आए थे
-ज़फ़र गौरी


जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ
तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते
-जौन एलिया

एक मैं ने ही उगाए नहीं ख़्वाबों के गुलाब
तू भी इस जुर्म में शामिल है मिरा साथ न छोड़
-मज़हर इमाम

बेहतर दिनों की आस लगाते हुए 'हबीब'
हम बेहतरीन दिन भी गँवाते चले गए
-हबीब अमरोहवी
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पेश तो होगा अदालत में मुक़दमा बे-शक
जुर्म क़ातिल ही के सर हो ये ज़रूरी तो नहीं
-अज्ञात

मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शर्माना नहीं आता
पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता

जुदा किसी से किसी का ग़रज़ हबीब न हो
ये दाग़ वो है कि दुश्मन को भी नसीब न हो
-नज़ीर अकबराबादी

क्यूं तेरे दौर में महरूम-ए-सज़ा हूं कि मुझे
जुर्म पर नाज़ सही जुर्म से इंकार कहाँ
-अज्ञात

मेरे जुर्मों का कुछ हिसाब तो है
तेरे ही रहम का हिसाब नहीं
-नादिर शाहजहाँ पुरी

यहाँ लब खोलना भी जुर्म है
यहाँ पर जब कभी आओ
-बुशरा 

कुछ रिवायात की गवाही पर
कितना जुर्माना मैं भरूँ साहब
-जावेद अख़्तर

देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था 
ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर 
- मोहम्मद अल्वी

कह दूँगा साफ़ हश्र में पूछेगा गर ख़ुदा 
लाखों गुनह किए तिरी रहमत के ज़ोर पर 
-अज्ञात 

समझे थे आस्तीन छुपा लेगी सब गुनाह
लेकिन ग़ज़ब हुआ कि सनम बोलने लगे
- हुसैन ताज रिज़वी

वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गई फ़ुर्सत 
हमें गुनाह भी करने को ज़िंदगी कम है 
- आनंद नारायण मुल्ला

ज़रा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूं

ज़रा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूं
बना बनाया हुआ घर उजाड़ आया हूं

वो इंतिक़ाम की आतिश थी मेरे सीने में
मिला न कोई तो ख़ुद को पछाड़ आया हूं

मैं इस जहान की क़िस्मत बदलने निकला था
और अपने हाथ का लिक्खा ही फाड़ आया हूं

अब अपने दूसरे फेरे के इंतिज़ार में हूं
जहां जहां मिरे दुश्मन हैं ताड़ आया हूं

मैं उस गली में गया और दिल ओ निगाह समेत
'दोस्त' जेब में जो कुछ था झाड़ आया हूं

मै फूल हूँ तो फिर तेरे बालो में क्यों नही

जो तेरे साथ रहते हुए सौ गवार हो
लानत हो ऐसे शख़्स पे बेशुमार हो

अब इतनी देर भी ना लगा आने में
ये न हो तू आ चुका हो तेरा इंतज़ार हो

मै फूल हूँ तो फिर तेरे बालो में क्यों नही
तू तीर है तो मेरे कलेजे के पार हो...

तहज़ीब हाफी 

Friday, July 10, 2020

सुलगती थी तमन्ना आँखों में

सुलगती थी तमन्ना आँखों में ,अश्क़ों को रोज जलाती थी
तेरे मह पर चाँदनी उगती थी,वो आँखों में ठंडक लाती थी

ठहरे हुए पानी की अदा तुम भी तो देखो

चुप-चाप सुलगता है दिया तुम भी तो देखो
किस दर्द को कहते हैं वफ़ा तुम भी तो देखो

किस तरह किनारों को है सीने से लगाए
ठहरे हुए पानी की अदा तुम भी तो देखो

बशर नवाज़

कि तेरे बाद मुझे कोई बेवफ़ा न लगे...

न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में
वो मुँह छुपा के भी जाये तो बेवफ़ा न लगे

तू इस तरह से मिरे साथ बेवफ़ाई कर
कि तेरे बाद मुझे कोई बेवफ़ा न लगे...

कैसर उल जाफ़री

बारिश - गुलजार शायरी

मैं चुप कराता हूं हर शब उमड़ती बारिश को
मगर ये रोज़ गई बात छेड़ देती है



बारिश आने से पहले
बारिश आने से पहले
बारिश से बचने की तैयारी जारी है
सारी दरारें बन्द कर ली हैं
और लीप के छत, अब छतरी भी मढ़वा ली है
खिड़की जो खुलती है बाहर
उसके ऊपर भी एक छज्जा खींच दिया है
मेन सड़क से गली में होकर, दरवाज़े तक आता रास्ता
बजरी-मिट्टी डाल के उसको कूट रहे हैं !
यहीं कहीं कुछ गड़हों में
बारिश आती है तो पानी भर जाता है
जूते पाँव, पाँएचे सब सन जाते हैं

गले न पड़ जाए सतरंगी
भीग न जाएँ बादल से
सावन से बच कर जीते हैं
बारिश आने से पहले
बारिश से बचने की तैयारी जारी है !


बारिश होती है तो पानी को भी लग जाते हैं पाँव
बारिश होती है तो पानी को भी लग जाते हैं पाँव
दर-ओ-दीवार से टकरा के गुज़रता है गली से
और उछलता है छपाकों में
किसी मैच में जीते हुए लड़कों की तरह

जीत कर आते हैं जब मैच गली के लड़के
जूते पहने हुए कैनवस के उछलते हुए गेंदों की तरह
दर-ओ-दीवार से टकरा के गुज़रते हैं
वो पानी के छपाकों की तरह

Thursday, July 9, 2020

आँखों को शराब कर के तो देखो

आँखों को शराब कर के तो देखो,
होठों को गुलाब कर के तो देखो. 
खण्डहर में भी आएगा महल का मजा,
बस एक बार नियत खराब कर के तो देखो. 

Tuesday, July 7, 2020

रूबरू उनसे मेरी मुलाकात हो गई ।

इस सावन एक अज़ीब बात हो गई
मेरे आंगन में खूब बरसात हो गई ।

उनको बरसों से सपनों में थे देखते
रूबरू उनसे मेरी मुलाकात हो गई ।

इस सावन एक अज़ीब बात हो गई
मेरे आंगन में खूब बरसात हो गई ।

दिल में जज्बातों का भरा था समंदर
शुक्र उनसे खुलकर मेरी बात हो गई ।

इस सावन एक अज़ीब बात हो गई
मेरे आंगन में खूब बरसात हो गई ।

उन्होंने भी दामन बढ़कर थाम लिया
जेठ की धूप में सुहानी रात हो गई।

इस सावन एक अज़ीब बात हो गई
मेरे आंगन में खूब बरसात हो गई ।

यकीं हो नहीं पा रहा, है कुछ नरेश
प्यार की यह कैसी सौगात हो गई ।

इस सावन एक अज़ीब बात हो गई
मेरे आंगन में खूब बरसात हो गई ।

ये तो इक रस्म-ए-जहाँ है जो अदा होती है

ये तो इक रस्म-ए-जहाँ है जो अदा होती है 
वर्ना सूरज की कहाँ सालगिरह होती है ।

Monday, July 6, 2020

बस कुछ बातें प्यार की...!!

ना लाख की , ना हजार की ,
बस कुछ बातें प्यार की...!!

ना कल की , ना आज की ,
ना बीते शनिवार की ,
बस कुछ बातें प्यार की...!!

ना ज्ञान की , ना विज्ञान की ,
ना इस दुःखद संसार की ,
बस कुछ बातें प्यार की...!!

ना देश की , ना समाज की ,
ना सत्ता , ना सरकार की ,
बस कुछ बातें प्यार की...!!

ना हुस्न की , ना दीदार की ,
किन्तु... पहले इज़हार की ,
बस कुछ बातें प्यार की...!!

उसका कक्षा में आना ,
              नयन-मोती चुराना ,
उन अदाओं के वार की ,
            बस कुछ बातें प्यार की...!!

उसका मृग स्वरूप लजाना ,
            मुख-मण्डल को छुपाना ,
फिर... एक हंसी की फुहार की ,
            बस कुछ बातें प्यार की...!!

उसका बिन बातें बतियाना ,
          जैसे अन्तःपटल थपथपाना ,
उस माधुर्य सी रसधार की ,
          बस कुछ बातें प्यार की...!!

दोस्तों का सताना ,
        उसके नाम से बुलाना ,
उस प्यारे से एहसास की ,
       बस कुछ बातें प्यार की...!!

उसकी सहेलियों का चिढ़ाना ,
          फिर प्रयत्नपूर्वक मनाना ,
उस मीठी सी मनुहार की ,
          बस कुछ बातें प्यार की...!!

उसका सबसे रूठना ,
                फूलों के भाँति बिखरना ,
फिर... कर-कमलों के प्रहार की ,
                बस कुछ बातें प्यार की...!!

उसका जिस दिन ना आना ,
           मानों धड़कनें थम जाना ,
उस पल-पल इंतज़ार की ,
           बस कुछ बातें प्यार की...!!

ना हीर-रांझा की ,
             ना शिरी-फरहाद की ,
ना लैला-मजनू की ,
            ना सोनी-महिवाल की ,
बस कुछ बातें प्यार की....!!     

Sunday, July 5, 2020

गुलज़ार के शायराना गुलपोश से चुनिंदा फूल

आइना देख कर तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई


आंखों से आंसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमां ये घर में आएं तो चुभता नहीं धुआं


चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआं


ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डांवा-डोल कभी


ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा
वगर्ना ज़िंदगी भर को रुला दिया होता


ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी

राख को भी कुरेद कर देखो
अभी जलता हो कोई पल शायद


दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसां उतारता है कोई

कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था
आज की दास्तां हमारी है


कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
ज़िंदगी एक नज़्म लगती है

कलम, आज उनकी जय बोल।

जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

पूरी कविता - 

जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

-दिनकर 

शकील बदायुनी की नज़्म: ज़लज़ला

एक शब हल्की सी जुम्बिश मुझे महसूस हुई 
मैं ये समझा मिरे शानों को हिलाता है कोई 

आँख उठाई तो ये देखा कि ज़मीं हिलती है 
जिस जगह शय कोई रक्खी है वहीं हिलती है 

सहन-ओ-दीवार की जुम्बिश है तो दर हिलते हैं 
बाहर आया तो ये देखा कि शजर हिलते हैं 

कोई शय जुम्बिश-ए-पैहम से नहीं है महरूम 
एक ताक़त है पस-ए-पर्दा मगर ना-मालूम 
 

चंद लम्हे भी ये नैरंगी-ए-आलम न रही 
ज़लज़ला ख़त्म हुआ जुम्बिश-ए-पैहम न रही 

हैरत-ए-दीद से अंगुश्त-ब-दंदाँ था मैं 
शाहिद-ए-जल्वा-ए-क़हहारी-ए-यज़्दाँ था मैं 

दफ़अतन एक सदा आह-ओ-फ़ुग़ाँ की आई 
मेरे अल्लाह ये घड़ी किस पे मुसीबत लाई 

गुल किया ज़लज़ला-ए-क़हर ने किस घर का चराग़ 
किस पे ढाया ये सितम किस को दिया हिज्र का दाग़ 

जा के नज़दीक ये नज़्ज़ारा-ए-हिरमाँ देखा 
एक हसीना को ब-सद हाल-ए-परेशाँ देखा 

बैज़वी शक्ल में थे हुस्न के जल्वे पिन्हाँ 
आँख में सेहर भरा था मगर आँसू थे रवाँ 

मैं ने घबरा के ये पूछा कि ये हालत क्यूँ है 
तेरी हस्ती हदफ़-ए-रंज-ओ-मुसीबत क्यूँ है 

बोली ऐ शाएर-ए-रंगीन-तबीअत मत पूछ 
रोज़-ओ-शब दिल पे गुज़रती है क़यामत मत पूछ 
लोग दुनिया को तिरी मुझ को ज़मीं कहते हैं 
अहल-ए-ज़र मुझ को मोहब्बत में हसीं कहते हैं 

मैं उन्हीं हुस्न-परस्तों की हूँ तड़पाई हुई 
तुझ से कहने को ये राज़ आई हूँ घबराई हुई 

ज़र-परस्तों से हैं बद-दिल मिरी दुनिया के ग़रीब 
हैं गिरफ़्तार-ए-सलासिल मिरी दुनिया के ग़रीब 

मुझ से ये ताज़ा बलाएँ नहीं देखी जाती 
ज़ालिमों की ये जफ़ाएँ नहीं देखी जातीं 
चाहती हूँ मिरे उश्शाक़ में कुछ फ़र्क़ न हो 
मुफ़्त में कश्ती-ए-एहसास-ए-वफ़ा ग़र्क़ न हो 

एक वो जिस को मयस्सर हों इमारात-ओ-नक़ीब 
एक वो जिस को न हो फूँस का छप्पर भी नसीब 

साहब-ए-दौलत-ओ-ज़ी-रुत्बा-ओ-ज़रदार हो एक 
बे-नवा ग़म-ज़दा-ओ-बेकस-ओ-लाचार हो एक 

एक मुख़्तार हो, औरंग-ए-जहाँबानी का 
इक मुरक़्क़ा हो ग़म-ओ-रंज-ओ-परेशानी का 
सख़्त नफ़रत है मुझे अपने परस्तारों से 
छीन लेते हैं मुझे मेरे तलब-गारों से 

चीरा-दस्ती का मिटा देती हैं सब जाह-ओ-जलाल 
हैफ़-सद-हैफ़ कि हाइल है ग़रीबों का ख़याल 

ये न होते तो दिखाती मैं क़यामत का समाँ 
ये न होते तो मिटाती मैं ग़ुरूर-ए-इंसाँ 

एक करवट में बदल देती निज़ाम-ए-आलम 
इक इशारे ही में हो जाती है ये महफ़िल बरहम 

इक तबस्सुम से जहाँ बर्क़-ब-दामाँ होता 
न ये आराइशें होतीं न ये सामाँ होता 
हर अदा पूछती सरमाया-परस्तों के मिज़ाज 
कुछ तो फ़रमाइए हज़रत कि हैं किस हाल में आज 

लख-पति संख-पती बे-सर-ओ-सामाँ होते 
जान बच जाए बस इस बात के ख़्वाहाँ होते 

बरसर-ए-ख़ाक नज़र आते हैं क़स्र-ओ-ऐवाँ 
अश्क-ए-ख़ूनीं से मिरे और भी उठते तूफ़ाँ 

मेरी आग़ोश में सब अहल-ए-सितम आ जाते 
मेरे बरताव से बस नाक में दम आ जाते 

बाज़ के मुँह ग़म-ए-आलाम से काले करती 
बाज़ को मौत की देवी के हवाले करती 
ख़ून-ए-ज़रदार ही मज़दूर की मज़दूरी है 
मैं जो ख़ामोश हूँ ये बाइस-ए-मजबूरी है 

मेरी आग़ोश में जाबिर भी हैं मजबूर भी हैं 
मेरे दामन ही से वाबस्ता ये मज़दूर भी हैं 

ज़ब्त करती हूँ जो ग़म आता है सह जाती हूँ 
जोश आता है मगर काँप के रह जाती हूँ

Saturday, July 4, 2020

दिल बस अब ज़ख़्म नया चाहता है

मसअला ख़त्म हुआ चाहता है
दिल बस अब ज़ख़्म नया चाहता है

कब तलक लोग अंधेरे में रहें
अब ये माहौल दिया चाहता है

मसअला मेरे तहफ़्फ़ुज़ का नहीं
शहर का शहर ख़ुदा चाहता है

मेरी तन्हाइयां लब मांगती हैं
मेरा दरवाज़ा सदा चाहता है

घर को जाते हुए शर्म आती है
रात का एक बजा चाहता है

चाहना, चाहत शायरी

मसअला ख़त्म हुआ चाहता है
दिल बस अब ज़ख़्म नया चाहता है
- शकील जमाली


मयस्सर से ज़ियादा चाहता है
समुंदर जैसे दरिया चाहता है
- अकरम नक़्क़ाश


इक सफ़र में कोई दो बार नहीं लुट सकता
अब दोबारा तिरी चाहत नहीं की जा सकती
- जमाल एहसानी


मसअला ख़त्म हुआ चाहता है
दिल बस अब ज़ख़्म नया चाहता है
- शकील जमाली

मयस्सर से ज़ियादा चाहता है
समुंदर जैसे दरिया चाहता है
- अकरम नक़्क़ाश


मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं
फिर उस के बाद गहरी नींद सोना चाहता हूँ मैं
- फ़रहत एहसास

हम चाहते थे मौत ही हम को जुदा करे
अफ़्सोस अपना साथ वहाँ तक नहीं हुआ
- वसीम नादिर


सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
जी चाहता है फिर उसे इक बार देखना
- सबा अकबराबादी

कुछ इस तरह से याद आते रहे हो
कि अब भूल जाने को जी चाहता है
- अख़्तर शीरानी


क्या बताऊँ कि कितनी शिद्दत से
तुम से मिलने को चाहता है जी
- इफ़्तिख़ार राग़िब

अब तो ये भी नहीं रहा एहसास

अब तो ये भी नहीं रहा एहसास 
दर्द होता है या नहीं होता 

इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा 
आदमी काम का नहीं होता 

टूट पड़ता है दफ़अ'तन जो इश्क़ 
बेश-तर देर-पा नहीं होता 

वो भी होता है एक वक़्त कि जब 
मा-सिवा मा-सिवा नहीं होता 

हाए क्या हो गया तबीअ'त को 
ग़म भी राहत-फ़ज़ा नहीं होता 

दिल हमारा है या तुम्हारा है 
हम से ये फ़ैसला नहीं होता 

जिस पे तेरी नज़र नहीं होती 
उस की जानिब ख़ुदा नहीं होता 

मैं कि बे-ज़ार उम्र भर के लिए 
दिल कि दम-भर जुदा नहीं होता

वो हमारे क़रीब होते हैं 
जब हमारा पता नहीं होता 

दिल को क्या क्या सुकून होता है 
जब कोई आसरा नहीं होता 

हो के इक बार सामना उन से 
फिर कभी सामना नहीं होता

कुछ नहीं कोई बददुआ भेजो

अपनी मंज़िल का रास्ता भेजो 
जान हम को वहाँ बुला भेजो 

क्या हमारा नहीं रहा सावन 
ज़ुल्फ़ याँ भी कोई घटा भेजो 

नई कलियाँ जो अब खिली हैं वहाँ 
उन की ख़ुश्बू को इक ज़रा भेजो 


हम न जीते हैं और न मरते हैं 
दर्द भेजो न तुम दवा भेजो 

धूल उड़ती है जो उस आँगन में 
उस को भेजो सबा सबा भेजो 

ऐ फकीरो गली के उस गुल की 
तुम हमें अपनी ख़ाक-ए-पा भेजो 

शफ़क़-ए-शाम-ए-हिज्र के हाथों 
अपनी उतरी हुई क़बा भेजो 

कुछ तो रिश्ता है तुम से कम-बख़्तों 
कुछ नहीं कोई बद-दुआ' भेजो 

Friday, July 3, 2020

ठोकर शायरी

देख ठोकर बने न तारीकी
कोई सोया है पांव फैला कर
- आदिल मंसूरी


मिलती है पैरों को ताक़त
खा कर देख कभी तू ठोकर
- मुईन शादाब



समझाया था देख के चलिए
कैसी खाई ठोकर कहिए
- शाद आरफ़ी


एक ठोकर पे सफ़र ख़त्म हुआ
एक सौदा था कि सर से निकला
- राजेन्द्र मनचंदा बानी


नाकामियों से कम न हुआ हौसला मिरा
ठोकर लगी तो और संभलता चला गया
- रहमत इलाही बर्क़ आज़मी


किया करती है सज्दे मुझ को ठोकर
मुक़द्दस है मिरी आवारगी भी
- सुलेमान ख़ुमार

उस ने दरिया को लगा कर ठोकर
प्यास की उम्र बढ़ाई होगी
- अंजुम लुधियानवी


मार देती है ज़िंदगी ठोकर
ज़ेहन जब उल्टे पांव चलता है
- बलवान सिंह आज़र

ठोकर किसी पत्थर से अगर खाई है मैं ने
मंज़िल का निशां भी उसी पत्थर से मिला है
- बिस्मिल सईदी


इस अंधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्अ जलाने से रही
- निदा फ़ाज़ली

Thursday, July 2, 2020

परवीन शाकिर की 3 चुनिंदा ग़ज़लें

अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे
कौन होगा जो मुझे उस की तरह याद करे

दिल अजब शहर कि जिस पर भी खुला दर इस का
वो मुसाफ़िर इसे हर सम्त से बरबाद करे

अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं
रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे

इतना हैराँ हो मिरी बे-तलबी के आगे
वा क़फ़स में कोई दर ख़ुद मिरा सय्याद करे

सोच रखना भी जराएम में है शामिल अब तो
वही मासूम है हर बात पे जो साद करे

जब लहू बोल पड़े उस के गवाहों के ख़िलाफ़
क़ाज़ी-ए-शहर कुछ इस बाब में इरशाद करे

उस की मुट्ठी में बहुत रोज़ रहा मेरा वजूद
मेरे साहिर से कहो अब मुझे आज़ाद करे


2
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा

इक बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा

यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा

काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

3
बहुत रोया वो हम को याद कर के
हमारी ज़िंदगी बरबाद कर के

पलट कर फिर यहीं आ जाएँगे हम
वो देखे तो हमें आज़ाद कर के

रिहाई की कोई सूरत नहीं है
मगर हाँ मिन्नत-ए-सय्याद कर के

बदन मेरा छुआ था उस ने लेकिन
गया है रूह को आबाद कर के

हर आमिर तूल देना चाहता है
मुक़र्रर ज़ुल्म की मीआ'द कर के

Wednesday, July 1, 2020

कोई पेड़ यूँ ही बड़ा नहीं होता!

रास्ता कहाँ नहीं होता, बस हमें पता नहीं होता! 
बरसों मौसम के मिजाज सहता है, कोई पेड़ यूँ ही बड़ा नहीं होता!