Thursday, July 2, 2020

परवीन शाकिर की 3 चुनिंदा ग़ज़लें

अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे
कौन होगा जो मुझे उस की तरह याद करे

दिल अजब शहर कि जिस पर भी खुला दर इस का
वो मुसाफ़िर इसे हर सम्त से बरबाद करे

अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं
रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे

इतना हैराँ हो मिरी बे-तलबी के आगे
वा क़फ़स में कोई दर ख़ुद मिरा सय्याद करे

सोच रखना भी जराएम में है शामिल अब तो
वही मासूम है हर बात पे जो साद करे

जब लहू बोल पड़े उस के गवाहों के ख़िलाफ़
क़ाज़ी-ए-शहर कुछ इस बाब में इरशाद करे

उस की मुट्ठी में बहुत रोज़ रहा मेरा वजूद
मेरे साहिर से कहो अब मुझे आज़ाद करे


2
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा

इक बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा

यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा

काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

3
बहुत रोया वो हम को याद कर के
हमारी ज़िंदगी बरबाद कर के

पलट कर फिर यहीं आ जाएँगे हम
वो देखे तो हमें आज़ाद कर के

रिहाई की कोई सूरत नहीं है
मगर हाँ मिन्नत-ए-सय्याद कर के

बदन मेरा छुआ था उस ने लेकिन
गया है रूह को आबाद कर के

हर आमिर तूल देना चाहता है
मुक़र्रर ज़ुल्म की मीआ'द कर के

No comments: