Sunday, July 5, 2020

गुलज़ार के शायराना गुलपोश से चुनिंदा फूल

आइना देख कर तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई


आंखों से आंसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमां ये घर में आएं तो चुभता नहीं धुआं


चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआं


ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डांवा-डोल कभी


ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा
वगर्ना ज़िंदगी भर को रुला दिया होता


ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी

राख को भी कुरेद कर देखो
अभी जलता हो कोई पल शायद


दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसां उतारता है कोई

कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था
आज की दास्तां हमारी है


कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
ज़िंदगी एक नज़्म लगती है

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