Saturday, July 11, 2020

जुर्म शायरी

इस शहर में चलती है हवा और तरह की
जुर्म और तरह के हैं सज़ा और तरह की
- मंसूर उस्मानी

वो ख़्वाब क्या था कि जिस की हयात है ताबीर
वो जुर्म क्या था कि जिस की सज़ा है तन्हाई
-ज़िया जालंधरी

लोग समझे अपनी सच्चाई की ख़ातिर जान दी
वर्ना हम तो जुर्म का इक़रार करने आए थे
-ज़फ़र गौरी


जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ
तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते
-जौन एलिया

एक मैं ने ही उगाए नहीं ख़्वाबों के गुलाब
तू भी इस जुर्म में शामिल है मिरा साथ न छोड़
-मज़हर इमाम

बेहतर दिनों की आस लगाते हुए 'हबीब'
हम बेहतरीन दिन भी गँवाते चले गए
-हबीब अमरोहवी
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पेश तो होगा अदालत में मुक़दमा बे-शक
जुर्म क़ातिल ही के सर हो ये ज़रूरी तो नहीं
-अज्ञात

मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शर्माना नहीं आता
पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता

जुदा किसी से किसी का ग़रज़ हबीब न हो
ये दाग़ वो है कि दुश्मन को भी नसीब न हो
-नज़ीर अकबराबादी

क्यूं तेरे दौर में महरूम-ए-सज़ा हूं कि मुझे
जुर्म पर नाज़ सही जुर्म से इंकार कहाँ
-अज्ञात

मेरे जुर्मों का कुछ हिसाब तो है
तेरे ही रहम का हिसाब नहीं
-नादिर शाहजहाँ पुरी

यहाँ लब खोलना भी जुर्म है
यहाँ पर जब कभी आओ
-बुशरा 

कुछ रिवायात की गवाही पर
कितना जुर्माना मैं भरूँ साहब
-जावेद अख़्तर

देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था 
ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर 
- मोहम्मद अल्वी

कह दूँगा साफ़ हश्र में पूछेगा गर ख़ुदा 
लाखों गुनह किए तिरी रहमत के ज़ोर पर 
-अज्ञात 

समझे थे आस्तीन छुपा लेगी सब गुनाह
लेकिन ग़ज़ब हुआ कि सनम बोलने लगे
- हुसैन ताज रिज़वी

वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गई फ़ुर्सत 
हमें गुनाह भी करने को ज़िंदगी कम है 
- आनंद नारायण मुल्ला

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