Sunday, July 5, 2020

शकील बदायुनी की नज़्म: ज़लज़ला

एक शब हल्की सी जुम्बिश मुझे महसूस हुई 
मैं ये समझा मिरे शानों को हिलाता है कोई 

आँख उठाई तो ये देखा कि ज़मीं हिलती है 
जिस जगह शय कोई रक्खी है वहीं हिलती है 

सहन-ओ-दीवार की जुम्बिश है तो दर हिलते हैं 
बाहर आया तो ये देखा कि शजर हिलते हैं 

कोई शय जुम्बिश-ए-पैहम से नहीं है महरूम 
एक ताक़त है पस-ए-पर्दा मगर ना-मालूम 
 

चंद लम्हे भी ये नैरंगी-ए-आलम न रही 
ज़लज़ला ख़त्म हुआ जुम्बिश-ए-पैहम न रही 

हैरत-ए-दीद से अंगुश्त-ब-दंदाँ था मैं 
शाहिद-ए-जल्वा-ए-क़हहारी-ए-यज़्दाँ था मैं 

दफ़अतन एक सदा आह-ओ-फ़ुग़ाँ की आई 
मेरे अल्लाह ये घड़ी किस पे मुसीबत लाई 

गुल किया ज़लज़ला-ए-क़हर ने किस घर का चराग़ 
किस पे ढाया ये सितम किस को दिया हिज्र का दाग़ 

जा के नज़दीक ये नज़्ज़ारा-ए-हिरमाँ देखा 
एक हसीना को ब-सद हाल-ए-परेशाँ देखा 

बैज़वी शक्ल में थे हुस्न के जल्वे पिन्हाँ 
आँख में सेहर भरा था मगर आँसू थे रवाँ 

मैं ने घबरा के ये पूछा कि ये हालत क्यूँ है 
तेरी हस्ती हदफ़-ए-रंज-ओ-मुसीबत क्यूँ है 

बोली ऐ शाएर-ए-रंगीन-तबीअत मत पूछ 
रोज़-ओ-शब दिल पे गुज़रती है क़यामत मत पूछ 
लोग दुनिया को तिरी मुझ को ज़मीं कहते हैं 
अहल-ए-ज़र मुझ को मोहब्बत में हसीं कहते हैं 

मैं उन्हीं हुस्न-परस्तों की हूँ तड़पाई हुई 
तुझ से कहने को ये राज़ आई हूँ घबराई हुई 

ज़र-परस्तों से हैं बद-दिल मिरी दुनिया के ग़रीब 
हैं गिरफ़्तार-ए-सलासिल मिरी दुनिया के ग़रीब 

मुझ से ये ताज़ा बलाएँ नहीं देखी जाती 
ज़ालिमों की ये जफ़ाएँ नहीं देखी जातीं 
चाहती हूँ मिरे उश्शाक़ में कुछ फ़र्क़ न हो 
मुफ़्त में कश्ती-ए-एहसास-ए-वफ़ा ग़र्क़ न हो 

एक वो जिस को मयस्सर हों इमारात-ओ-नक़ीब 
एक वो जिस को न हो फूँस का छप्पर भी नसीब 

साहब-ए-दौलत-ओ-ज़ी-रुत्बा-ओ-ज़रदार हो एक 
बे-नवा ग़म-ज़दा-ओ-बेकस-ओ-लाचार हो एक 

एक मुख़्तार हो, औरंग-ए-जहाँबानी का 
इक मुरक़्क़ा हो ग़म-ओ-रंज-ओ-परेशानी का 
सख़्त नफ़रत है मुझे अपने परस्तारों से 
छीन लेते हैं मुझे मेरे तलब-गारों से 

चीरा-दस्ती का मिटा देती हैं सब जाह-ओ-जलाल 
हैफ़-सद-हैफ़ कि हाइल है ग़रीबों का ख़याल 

ये न होते तो दिखाती मैं क़यामत का समाँ 
ये न होते तो मिटाती मैं ग़ुरूर-ए-इंसाँ 

एक करवट में बदल देती निज़ाम-ए-आलम 
इक इशारे ही में हो जाती है ये महफ़िल बरहम 

इक तबस्सुम से जहाँ बर्क़-ब-दामाँ होता 
न ये आराइशें होतीं न ये सामाँ होता 
हर अदा पूछती सरमाया-परस्तों के मिज़ाज 
कुछ तो फ़रमाइए हज़रत कि हैं किस हाल में आज 

लख-पति संख-पती बे-सर-ओ-सामाँ होते 
जान बच जाए बस इस बात के ख़्वाहाँ होते 

बरसर-ए-ख़ाक नज़र आते हैं क़स्र-ओ-ऐवाँ 
अश्क-ए-ख़ूनीं से मिरे और भी उठते तूफ़ाँ 

मेरी आग़ोश में सब अहल-ए-सितम आ जाते 
मेरे बरताव से बस नाक में दम आ जाते 

बाज़ के मुँह ग़म-ए-आलाम से काले करती 
बाज़ को मौत की देवी के हवाले करती 
ख़ून-ए-ज़रदार ही मज़दूर की मज़दूरी है 
मैं जो ख़ामोश हूँ ये बाइस-ए-मजबूरी है 

मेरी आग़ोश में जाबिर भी हैं मजबूर भी हैं 
मेरे दामन ही से वाबस्ता ये मज़दूर भी हैं 

ज़ब्त करती हूँ जो ग़म आता है सह जाती हूँ 
जोश आता है मगर काँप के रह जाती हूँ

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