दिल बस अब ज़ख़्म नया चाहता है
कब तलक लोग अंधेरे में रहें
अब ये माहौल दिया चाहता है
मसअला मेरे तहफ़्फ़ुज़ का नहीं
शहर का शहर ख़ुदा चाहता है
मेरी तन्हाइयां लब मांगती हैं
मेरा दरवाज़ा सदा चाहता है
घर को जाते हुए शर्म आती है
रात का एक बजा चाहता है
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
No comments:
Post a Comment