Wednesday, December 6, 2023

तुम दिल के सबसे करीब हो

माना की हमारे बिच बोहोत सी दूरियां हैं 

लेकिन फिर भी तुम दिल के सबसे करीब हो

माना की रात की ख़ामोशी मुझे डरा देती है
लेकिन अगली सुबह की वो खिलती हुई धूप की तुम उम्मीद हो

माना की हमें कुछ मांगना नहीं आता है रब से
पर मेरी हर दुआ में कांपते हाथों की तुम लकीर हो

माना की हम कोई कलाकार तो नहीं हैं
पर मेरी कला की तुम खूबसूरत तस्वीर हो
तुम दिल के सबसे करीब हो....

बहुत खूबसूरत कहानी हो तुम

हमारी आंख का पानी हो तुम

बहुत खूबसूरत कहानी हो तुम
अंगूठियां तो कब की लापता हैं मगर
उंगलियों पे पड़ी निशानी हो तुम
बहुत खूबसूरत कहानी हो तुम
जिसमे लगते थे सजर रौनकों के
उन्हीं महफिलों की वीरानी हो तुम
बहुत खूबसूरत कहानी हो तुम
आहटों का सिलसिला थमेगा नहीं
खुशबुओं में रात की रानी हो तुम
बहुत खूबसूरत कहानी हो तुम
तुमको भुलाना जैसे मुमकिन नहीं
उम्र भर जो रहेगी वो निशानी हो तुम
बहुत खूबसूरत कहानी हो तुम....

Tuesday, December 5, 2023

मृदु स्पंदन

समस्त भावों को अपने चढ़ाती

मौन स्पंद मेरी तुझे बुलाती।

जो तुम आए ना इस बार

दहकेगी वेदना क्षुब्ध प्यास।


सृष्टि के कन कन का कंपन

रुक जाएगा आदि अनंत स्फुरण।

विराम विश्राम लगेगा जीवन पर

मिटेगी संवेदना जल थल पर।


नियति नृत्य करेगी कहरों से

डूबेगी धरा अश्रु लहरों से।

पिघल गिरि गिर बहेगा पार

जगती ज्वाला की कंचन धार।


ढलती रातों में आलोक तिमिर

चीत्कारेगी क्रंदन करती पीर।

प्रकट हो जाएगा जर्जर विकार

बचेगा ना कोई उर्वर उपसंहार।


जन्म मृत्यु की भयावह संसृति

बिखरेगी अंत आरंभ की नीति।

जड़ - चेतन का सुदृढ़ बंधन

शांत हो जाएगा मृदु स्पंदन।

बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में, ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है

जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है

मगर वो आज भी बरहम नहीं है


बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना

तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है


बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में

ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है


तक़ाज़े क्यूँ करूँ पैहम न साक़ी

किसे याँ फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम नहीं है


उधर मश्कूक है मेरी सदाक़त

इधर भी बद-गुमानी कम नहीं है


मिरी बर्बादियों का हम-नशीनो

तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है


अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं

अभी तो आँख भी पुर-नम नहीं है


ब-ईं सैल-ए-ग़म ओ सैल-ए-हवादिस

मिरा सर है कि अब भी ख़म नहीं है


'मजाज़' इक बादा-कश तो है यक़ीनन

जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है

मजाज़ लखनवी 

उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ

उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ

अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ


ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़

ऐ मर्ग-ए-ना-गहाँ तिरा आना बहुत हुआ


हम ख़ुल्द से निकल तो गए हैं पर ऐ ख़ुदा

इतने से वाक़िए का फ़साना बहुत हुआ


अब हम हैं और सारे ज़माने की दुश्मनी

उस से ज़रा सा रब्त बढ़ाना बहुत हुआ


अब क्यूँ न ज़िंदगी पे मोहब्बत को वार दें

इस आशिक़ी में जान से जाना बहुत हुआ


अब तक तो दिल का दिल से तआ'रुफ़ न हो सका

माना कि उस से मिलना मिलाना बहुत हुआ


क्या क्या न हम ख़राब हुए हैं मगर ये दिल

ऐ याद-ए-यार तेरा ठिकाना बहुत हुआ


कहता था नासेहों से मिरे मुँह न आइयो

फिर क्या था एक हू का बहाना बहुत हुआ


लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र

अहमद-'फ़राज़' तुझ से कहा ना बहुत हुआ

Ahmad Faraz

ये जिंदगी बहुत कुछ सिखाती है

ये जिंदगी बहुत कुछ सिखाती है

कभी हंसाती कभी रुलाती है

लगाती है ठहाके मेरी हालत पर

कभी रोती कभी गुनगुनाती है

बहती है जिंदगी निर्झर की भांति

ख़ुद बेरंग होकर सारे रंग दिखाती है

कहती है मुझसे चल तू मेरे संग

ना चले तो कर दूंगी बेरंग

कहती हूं मैं ठहर तू एक पल

जाना कहां है अब चलेंगे कल

थके कदम अभी थके नहीं की

जिंदगी ने हाथ खींचा

कहा दूर है मंजिल अब भी

संघर्ष ही मेरा नाम है दूजा

लड़खड़ाते कदम और गिर पड़ी मैं

जिंदगी ने साथ छोड़ा

वक्त की जंजीर टूटी

सामने आजाद खड़ी मैं

सामने आजाद खड़ी मैं।

मोती हो कि शीशा जाम कि दुर जो टूट गया सो टूट गया

मोती हो कि शीशा जाम कि दुर 

जो टूट गया सो टूट गया 

कब अश्कों से जुड़ सकता है 

जो टूट गया सो छूट गया 


तुम नाहक़ टुकड़े चुन चुन कर 

दामन में छुपाए बैठे हो 

शीशों का मसीहा कोई नहीं 

क्या आस लगाए बैठे हो 


शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं 

वो साग़र-ए-दिल है जिस में कभी 

सद-नाज़ से उतरा करती थी 

सहबा-ए-ग़म-ए-जानाँ की परी 


फिर दुनिया वालों ने तुम से 

ये साग़र ले कर फोड़ दिया 

जो मय थी बहा दी मिट्टी में 

मेहमान का शहपर तोड़ दिया 


ये रंगीं रेज़े हैं शायद 

उन शोख़ बिलोरीं सपनों के 

तुम मस्त जवानी में जिन से 

ख़ल्वत को सजाया करते थे 

नादारी दफ़्तर भूक और ग़म 

उन सपनों से टकराते रहे 

बे-रहम था चौमुख पथराओ 

ये काँच के ढाँचे क्या करते 


या शायद इन ज़र्रों में कहीं 

मोती है तुम्हारी इज़्ज़त का 

वो जिस से तुम्हारे इज्ज़ पे भी 

शमशाद-क़दों ने रश्क किया 


इस माल की धुन में फिरते थे 

ताजिर भी बहुत रहज़न भी कई 

है चोर-नगर याँ मुफ़लिस की 

गर जान बची तो आन गई 


ये साग़र शीशे लाल-ओ-गुहर 

सालिम हों तो क़ीमत पाते हैं 

यूँ टुकड़े टुकड़े हों तो फ़क़त 

चुभते हैं लहू रुलवाते हैं 


तुम नाहक़ शीशे चुन चुन कर 

दामन में छुपाए बैठे हो 

शीशों का मसीहा कोई नहीं 

क्या आस लगाए बैठे हो 


यादों के गिरेबानों के रफ़ू 

पर दिल की गुज़र कब होती है 

इक बख़िया उधेड़ा एक सिया 

यूँ उम्र बसर कब होती है 


इस कार-गह-ए-हस्ती में जहाँ 

ये साग़र शीशे ढलते हैं 

हर शय का बदल मिल सकता है 

सब दामन पुर हो सकते हैं 

जो हाथ बढ़े यावर है यहाँ 

जो आँख उठे वो बख़्तावर 

याँ धन-दौलत का अंत नहीं 

हों घात में डाकू लाख मगर 


कब लूट-झपट से हस्ती की 

दूकानें ख़ाली होती हैं 

याँ परबत-परबत हीरे हैं 

याँ सागर सागर मोती हैं 


कुछ लोग हैं जो इस दौलत पर 

पर्दे लटकाते फिरते हैं 

हर पर्बत को हर सागर को 

नीलाम चढ़ाते फिरते हैं 


कुछ वो भी हैं जो लड़ भिड़ कर 

ये पर्दे नोच गिराते हैं 

हस्ती के उठाई-गीरों की 

हर चाल उलझाए जाते हैं 


इन दोनों में रन पड़ता है 

नित बस्ती-बस्ती नगर-नगर 

हर बस्ते घर के सीने में 

हर चलती राह के माथे पर 


ये कालक भरते फिरते हैं 

वो जोत जगाते रहते हैं 

ये आग लगाते फिरते हैं 

वो आग बुझाते रहते हैं 


सब साग़र शीशे लाल-ओ-गुहर 

इस बाज़ी में बद जाते हैं 

उट्ठो सब ख़ाली हाथों को 

इस रन से बुलावे आते हैं 

Faiz Ahmad Faiz 

चलो एक दीया फिर से जलाएं

चलो एक दीया,

फिर से जलाएं।

अंधेरे को धरा से,

मार भगाएं।

रहे जिनकी जिंदगी में,

सदा हैं अंधेरे।

उजाले न आए,

कभी न देखे सबेरे।

उन्हें आके फिर से,

सजाएं-संवारें।

चलो एक दीया

फिर से जलाएं।

अंधेरे को धरा से

मार भगाएं।

निशा बन गई,

जिनकी जिंदगी की।

कहानी,

हमेशा है देखी।

दुख और परेशानी,

उनके दर्द और घावों,

पर मरहम लगाएं।

चलो एक दीया,

फिर से जलाएं।

तिमिर है घना,

रात्रि न कटने वाली।

पता कब फिर से,

आएगी जीवन मे  दिवाली।

चलो उनके जीवन मे ,

सूरज बनके आएं।

उनके अंधकारपूर्ण जीवन मे ,

चांदनी बिखराएं।

चलो एक दीया,

फिर से जलाएं।

अंधेरे को धरा से,

मार भगाएं।

राकेश धर द्विवेदी 

सारी मस्ती शराब की सी है

हस्ती अपनी हबाब की सी है 

ये नुमाइश सराब की सी है 


नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए 

पंखुड़ी इक गुलाब की सी है 


चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर 

याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है 


बार बार उस के दर पे जाता हूँ 

हालत अब इज़्तिराब की सी है 


नुक़्ता-ए-ख़ाल से तिरा अबरू 

बैत इक इंतिख़ाब की सी है 


मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़ 

उसी ख़ाना-ख़राब की सी है 

आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद 

देर से बू कबाब की सी है 


देखिए अब्र की तरह अब के 

मेरी चश्म-ए-पुर-आब की सी है 


'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में 

सारी मस्ती शराब की सी है 

Meer Taqi Meer 

बारिश के बाद की धूप

बारिश के बाद की धूप,

इंद्रधनुष से धरती पे उतरती धूप
पेड़ की पत्तियों पर चमकती धूप,
चेहरे पर आके निखरती धूप,

कहि कहि जो डूब रहा था,
देखो अब वो सुख रहा है,
गली मोहल्लों में पानी के रेले,
धीरे-धीरे टूट रहा है,

छत से जो पानी टपक रहा था,
देखो अब वो चटक रहा है,
कभी जलती थी जो धूप,
अब कितनी कोमल लगती है धूप,

गीला गीला था तन मन,
सुखा धूप में आया कितना आनन्द,
शीलन का वी गीला गन्ध,
धूप से मीट गया सारा दुर्गन्ध,

सारा दिन बीत चुका,
क्षितिज ने धूप को बुलाया है
जहाँ से वो आया है,
धूप से नाता अब छूट रहा हैं,
देखो क्षितिज में वो डूब रहा हैं,
कल फिर ले के आना सूरज,
यही प्यारी सी धूप।

सुबह-ओ-शाम मिला किसको

प्यासे थे लब किसके,यूं जाम मिला किसको।

तारीफ हुई किसकी, इल्ज़ाम मिला किसको।।

गम-ए-हिज्र मे किसने,गुजारी थी उम्र अपनी।
मगर तेरी इनायत का , इनाम मिला किसको।।

शुआ-ए-सहर तक, कौन मुंतजिर था उनका।
लुत्फ-ए-दीद,सुबह-ओ-शाम मिला किसको।।

आगाज-ए-तर्क-ए-ताल्लुक,किया है किसने।
मगर फांसलों का,वो अंजाम मिला किसको।।

हसरत है, तेरी तहरीर हर्फ-बा-हर्फ पढ़ें हम।
ख्वाहिश थी किसकी,पैगाम मिला किसको।।

राह-ए-उल्फत का सफर, तय किया किसने।
मुसाफ़िर था कौन,यूं मकाम मिला किसको।।

अपने बहते हुए अश्कों को,पी लिया किसने।
मगर सर-ए-बज्म, अहतराम मिला किसको।।

तमाम उम्र से वो, तसव्वुर मे बसे थे किसके।
आज उसी नजर का, सलाम मिला किसको।।

ऐसा एक नजरिया हूं

जब तक बहता दरिया हूं

अरमानों का जरिया हूं
मुझसे अलग नहीं है कोई
ऐसा एक नजरिया हूं

जगमगाते रहते हैं तेरे ख्वाब मेरी आंखों में

जगमगाते रहते हैं तेरे ख्वाब मेरी आंखों में,

कुछ ऐसे ही मेरी रातें बसर होती हैं तेरी आंखों में.....

Monday, December 4, 2023

तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ

तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ
मैं दुश्मनों में हूँ कि तिरे दोस्तों में हूँ

मुझ से गुरेज़-पा है तो हर रास्ता बदल
मैं संग-ए-राह हूँ तो सभी रास्तों में हूँ

तू आ चुका है सत्ह पे कब से ख़बर नहीं
बेदर्द मैं अभी उन्हीं गहराइयों में हूँ

ऐ यार-ए-ख़ुश-दयार तुझे क्या ख़बर कि मैं
कब से उदासियों के घने जंगलों में हूँ

तू लूट कर भी अहल-ए-तमन्ना को ख़ुश नहीं
याँ लुट के भी वफ़ा के इन्ही क़ाफ़िलों में हूँ

बदला न मेरे बाद भी मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू
मैं जा चुका हूँ फिर भी तिरी महफ़िलों में हूँ

मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर
ये सोच ले कि मैं भी तिरी ख़्वाहिशों में हूँ

तू हँस रहा है मुझ पे मिरा हाल देख कर
और फिर भी मैं शरीक तिरे क़हक़हों में हूँ

ख़ुद ही मिसाल-ए-लाला-ए-सेहरा लहू लहू
और ख़ुद 'फ़राज़' अपने तमाशाइयों में हूँ

अहमद फ़राज़ 

अब जो लौटे हो इतने सालों में, धूप उतरी हुई है बालों में

अब जो लौटे हो इतने सालों में 

धूप उतरी हुई है बालों में 


तुम मिरी आँख के समुंदर में 

तुम मिरी रूह के उजालों में 


फूल ही फूल खिल उठे मुझ में 

कौन आया मिरे ख़यालों में 


मैं ने जी-भर के तुझ को देख लिया 

तुझ को उलझा के कुछ सवालों में 


मेरी ख़ुशियों की काएनात भी तू 

तू ही दुख-दर्द के हवालों में 


जब तिरा दोस्तों में ज़िक्र आए 

टीस उठती है दिल के छालों में 


तुम से आबाद है ये तन्हाई 

तुम ही रौशन हो घर के जालों में 


साँवली शाम की तरह है वो 

वो न गोरों में है न कालों में 


क्या उसे याद आ रहा हूँ 'वसी' 

रंग उभरे हैं उस के गालों में 


-Wasi Shah

काश तुम सुन पाते

काश तुम सुन पाते

मेरे दिल की एक एक धड़कन

जो सिर्फ तुम्हारे लिऐ धड़कती हैं

काश देख पाते मेरी तड़पन

और मेरी आँखों की थकावट

जो तेरे बगैर तन्हा नींद न आने की वजह से है

कमाल करते हो विनीत

पूछकर कि जिन्दा क्यों हो ?

कितना दुश्वार था दुनिया ये हुनर आना भी

कितना दुश्वार था दुनिया ये हुनर आना भी

तुझ से ही फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी


कैसी आदाब-ए-नुमाइश ने लगाईं शर्तें

फूल होना ही नहीं फूल नज़र आना भी


दिल की बिगड़ी हुई आदत से ये उम्मीद न थी

भूल जाएगा ये इक दिन तिरा याद आना भी


जाने कब शहर के रिश्तों का बदल जाए मिज़ाज

इतना आसाँ तो नहीं लौट के घर आना भी


ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं

तेरा होना भी नहीं और तिरा कहलाना भी


ख़ुद को पहचान के देखे तो ज़रा ये दरिया

भूल जाएगा समुंदर की तरफ़ जाना भी


जानने वालों की इस भीड़ से क्या होगा 'वसीम'

इस में ये देखिए कोई मुझे पहचाना भी


-वसीम बरेलवी 

कुछ रिश्तों के नाम नहीं

कुछ रिश्तों के नाम नहीं तो
कुछ रिश्ते हैं सिर्फ नाम के..

मौका देख के बनते रिश्ते
कौन हैं कब कितने काम के..

क़ीमत अदा करनी ही होती
प्राप्य नहीं कुछ बिना दाम के..

कुछ साथी ही सुबह के होते
साथी बहुत होते हैं शाम के..

काम पड़े तब ही मिलते हैं
कौन आते हैं बिना काम के..

कुछ गिनते ही रह जाते हैं
ले पाते कुछ स्वाद आम के..

लगती नहीं किनारे अपनी
जीवन नैया बिना राम के

कुछ ख्वाब अधूरे वहीं पड़े हैं

जहाँ पे तुमने था छोड़ा मुझको

कुछ ख्वाब अधूरे वहीं पड़े हैं।

तुम्हें ख़बर ही नहीं है देखो

कहाँ खड़ा हूँ मै,मैं ख़्वाब लेके।।


तुम्हारा तो है मुक़ाम जन्नत,

ये सारे आँसू हैं मेरे हिस्से ।।

तुम्हारा तो है मुक़ाम जन्नत,

मुझे भी अपने तू साथ ले चल।।

तेरी वफ़ा के रंग कई थे,

मेरी वफ़ा बेवफ़ा हो गई।।

याद आता है रोज़ ओ शब कोई

याद आता है रोज़ ओ शब कोई

हम से रूठा है बे-सबब कोई

लब-ए-जू छाँव में दरख़्तों की
वो मुलाक़ात थी अजब कोई

जब तुझे पहली बार देखा था
वो भी था मौसम-ए-तरब कोई

कुछ ख़बर ले कि तेरी महफ़िल से
दूर बैठा है जाँ-ब-लब कोई

न ग़म-ए-ज़िंदगी न दर्द-ए-फ़िराक़
दिल में यूँही सी है तलब कोई

याद आती हैं दूर की बातें
प्यार से देखता है जब कोई

चोट खाई है बार-हा लेकिन
आज तो दर्द है अजब कोई

जिन को मिटना था मिट चुके 'नासिर'
उन को रुस्वा करे न अब कोई

नासिर काज़मी 

मेरे सपनों को आकार मिले कैसे

मेरे सपनों को आकार मिले कैसे।

अब लज्जत-ए-दीदार मिले कैसे।।

कल तक जिससे, प्यास बुझायी।
आज वो ही आबशार मिले कैसे।।

चेहरे पढने का हुनर सीख लिया।
मगर आँखों मे , प्यार मिले कैसे।।

फूलों का वजूद,बचाया जिन्होंने।
फिर हमे, वो ही खार मिले कैसे।।

मुद्दत से, जो बेकरार हैं यहां पर।
उन्हें सुकूँ,और करार मिले कैसे।।

जिनको जुस्तजू है , दर की तेरे।
उनको तो दर-ए-यार मिले कैसे।।

तुमने जैसा चाहा

तुमने जैसा चाहा

मैं वैसी होती गई,
अब तुम मेरे लिए खुद को
बदल कर देख लो ।
जिस भाव से मैंने तुम्हें
देखा हर दिन हर पल,
उस भाव से तुम भी मुझे
नज़र भर देख लो।
तुमसे मिलने के बाद कोई
क्यूं भाया ना मुझे,
उस प्रेम की गहराई में
उतर कर देख लो।
हर रंग में जीवन क्यूं
हमें संग भली लगती है,
अपने दिल से पूछो और
समझ कर देख लो।

भीगी भीगी बरसातों में

भीगी भीगी बरसातों में

तुम ख्वाबों में छा जाते हो
मैं कैसे समझाऊँ तुम्हें
मेरे सपनों में तुम आते हो
सोंधी सोधी माटी की खुशबू 
कोई तान छोड़ कर जाती है
मद्धम मद्धम पुरवा पवन
गीत कोई सुनाती है
मैं तुम्हारी डीपी को चूमकर
उससे लिपटकर रोता हूँ
तेरी यादों में ही मरता हूँ
तेरी यादों में ही जीता हूँ।
मिलन की बाट जोहता मैं
तेरी यादों के सपने बुनता हूँ
कैसे बतलाऊँ तुमको मैं
तुम्हे प्यार मैं कितना करता हूँ।

राकेश धर द्विवेदी

ख़ुद को जला बैठा

चाँद की ख़्वाहिश में,

मैं दिल लगा बैठा ।
आफ़ताब से बहुत दूर रहा,
और ख़ुद को जला बैठा ।।

यक़ीन चाँद पे सूरज में ऐतबार भी रख

यक़ीन चाँद पे सूरज में ऐतबार भी रख

मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख

ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

ये ही लहू है शहादत ये ही लहू पानी
ख़िज़ाँ नसीब सही ज़ेहन में बहार भी रख

घरों के ताक़ों में गुल-दस्ते यूँ नहीं सजते
जहाँ हैं फूल वहीं आस-पास ख़ार भी रख 

पहाड़ गूँजें नदी गाए ये ज़रूरी है
सफ़र कहीं का हो दिल में किसी का प्यार भी रख
Nida Fazli

दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं

दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं 

रोने वालों से हँसी अच्छी नहीं 

मुँह बनाता है बुरा क्यूँ वक़्त-ए-वाज़ 
आज वाइ'ज़ तू ने पी अच्छी नहीं 

ज़ुल्फ़-ए-यार इतना न रख दिल से लगाओ 
दोस्ती नादान की अच्छी नहीं 

बुत-कदे से मय-कदा अच्छा मिरा 
बे-ख़ुदी अच्छी ख़ुदी अच्छी नहीं 

मुफ़लिसों की ज़िंदगी का ज़िक्र क्या 
मुफ़्लिसी की मौत भी अच्छी नहीं 


इस क़दर खिंचती है क्यूँ ऐ ज़ुल्फ़-ए-यार 

ले के दिल इतनी कजी अच्छी नहीं 

आएँ मेरी बज़्म-ए-मातम में वो क्या 
हाथ में मेंहदी रची अच्छी नहीं 

शैख़ को दे दो मय-ए-बे-रंग-ओ-बू 
उस की क़िस्मत से खिंची अच्छी नहीं 

इक हसीं हो दिल के बहलाने को रोज़ 
रोज़ की ये दिल-लगी अच्छी नहीं 

ज़र्रा ज़र्रा आफ़्ताब-ए-हश्र है 
हश्र अच्छा वो गली अच्छी नहीं 

अहल-ए-महशर से न उलझो तुम 'रियाज़' 
हश्र में दीवानगी अच्छी नहीं 

रियाज़ ख़ैराबादी

तुम नही हो तो इधर भी अच्छा नहीं लगता

तुम नही हो तो इधर भी अच्छा नहीं लगता

तुम जो घर न हो तो घर अच्छा नहीं लगता ।

अकेले चलना भी कोई चलना है मुसाफिर का
साथ कोई ना हो तो सफर अच्छा नहीं लगता ।

जबसे उनके ख्वाब टूटे है रोज पत्तो की तरह
वीरान दिल में अब उधर भी अच्छा नहीं लगता ।

कहां की दिल्लगी कहां पर रंग ला दे भरोसा नहीं
चढ़े न इश्क तो फिर उम्र भर अच्छा नही लगता।

बहुत याद सताती है तुम्हारी तन्हा रातों में मुझे
सोचता रहता हूं तुम्हे रात भर अच्छा नही लगता।

गर हो सके तो रिश्ता ये बरक़रार रखना

गर हो सके तो रिश्ता ये बरक़रार रखना,

मिलते हुए तो थोड़ा-सा दिल में प्यार रखना।

नफ़रत अगर हो दिल में तो भूल जाना उसको,
दिल में जो प्यार हो तो फिर बेशुमार रखना।

कुछ फूल भी हैं उनपे उनको गले लगा लो,
अच्छा नहीं है हरदम यूँ दिल में खार रखना।

दिल में अगर खुशी हो वो भी दिखे तो अच्छा,
आँखों में आँसुओं का मत इंतज़ार रखना।

कोई न फिर सुनेगा बातें तुम्हारी 'ऐ दोस्त',
बातों को सबके आगे मत बार-बार रखना।

तेरे आने से खिल जाती है दिल की बगिया

तेरे आने से खिल जाती है दिल की बगिया,

तुम्हें हक है तुम आओ या न आओ,
तेरी चाहत हमेशा हमें रहेगी,
तुम्हें हक है तुम चाहो न चाहो,
इंतजार तेरा हमेशा हम करेंगे,
तुम्हें हक है तुम आओ या न आओं,

शेर,,बदल जाती हैं ऋतु मौसम की,
फिजाओं में जब तेरी खुशबू आती है,
बेगानी जिन्दगी में बे मोसम ,
प्यार की कली खिल जाती है.

ज़हर ये किसने घोला है हवाओं के ख्यालों में

नहीं कुछ काम रस्ते के चरागों का उजालों में ।

ज़हर ये किसने घोला है हवाओं के ख्यालों में ।

पयामे इत्तिहादे दीनो मिल्लत दे रहे हैं वो,
सबूते यक जवां मर्दी नहीं है जिनकी चालों में ।

वो जो कहते हैं उल्फत की हवा हम को नहीं लगनी,
उलझ जाएंगे कल इक टुक निगाहों के सवालों में ।

अरे ओ मैकशे नादाँ ज़रा कुछ क़ुर्बें साक़ी रख,
शराब उड़ कर नहीं आती है खुद-ब-खुद प्यालों में ।

समाअत हो गई बहरी मिरी और हो भी ना क्योंकर,
ख़िताबत में है ख़ुश्की और चिकना पन निवालों में

ख़मोशी ख़ूब बेहतर है हिसारे दानिशां में,दोस्त,
ख़्यालों के कबूतर खूब उड़ा, लेकिन ख़्यालों में ।

कुछ तस्वीरें हैं तेरी जिन्हे

कुछ तस्वीरें हैं तेरी, जिन्हे हर रोज निहारता हूं,

पता है आएगी न तू, तुझे फिर भी पुकारता हूं,
छिड़ी ही जंग जहन में की, मुझे तुझ को भूलना है,
उसे हर रोज में लड़ता हूं, उसे हर रोज हारता हूं ।

कोई भी शरमा जाये तुमको देखकर

आँखे मुब्तला है ऐसे नजारें को देखकर

की कोई भी शरमा जाये तुमको देखकर

ऐब होता अगर कोई तुझमें तो छुपाती
यूँ नजरें नहीं उठाती , हमको देखकर

सब खैरियत है तिरे पूछने पे क्या कहूँ
कुछ याद ही नहीं आता तुमको देखकर

आँखों को चैन जब नजारों से नहीं आता है
तो तेरी तश्वीर बनाता हूँ आँखें मूंदकर

तुम्हारे पहलू में क्यूँ आया बताना होगा
तुम्हे अंदाजा नहीं मेरी हालत देखकर

मेरे सर पे तपिश किरणों का कारवां है
फिर भी मुस्कुरा रहा हूँ तुमको देखकर

तुझमें जादू है की तिरे संगत में माया है
हर गम हवा होता है तुमको देखकर

​वो जो शायर था, चुप सा रहता था

वो जो शायर था, चुप सा रहता था

बहकी बहकी सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूँगी ख़ामोशियों की आवाज़ें!
जम्अ करता था चाँद के साए
गीली गीली सी नूर की बूँदें
ओक में भर के खड़खड़ाता था
रूखे रूखे से रात के पत्ते
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे पक्के से लम्हे चुनता था

हाँ, वही, वो अजीब सा शाएर
रात को उठ के कुहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता है!!

चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुद-कुशी की है
गुलजार 

मैं भी तेरे जैसा हूँ

अपनी धुन में रहता हूँ

मैं भी तेरे जैसा हूँ
 
ओ पिछली रुत के साथी

अब के बरस मैं तन्हा हूँ
 
तेरी गली में सारा दिन

दुख के कंकर चुनता हूँ
 
मुझ से आँख मिलाए कौन

मैं तेरा आईना हूँ
 
मेरा दिया जलाए कौन

मैं तिरा ख़ाली कमरा हूँ
 
तेरे सिवा मुझे पहने कौन

मैं तिरे तन का कपड़ा हूँ
 
तू जीवन की भरी गली

मैं जंगल का रस्ता हूँ
 
आती रुत मुझे रोएगी

जाती रुत का झोंका हूँ
 
अपनी लहर है अपना रोग

दरिया हूँ और प्यासा हूँ
Nasir Kazmi 

उन्हीं से दूर रहना और उन्ही को चाहना भी

बड़ा मुश्क़िल है ये इल्म -ओ-हुनर आजमाना भी

उन्हीं से दूर रहना और उन्ही को चाहना भी!
मुनासिब नहीं है रखना अंधेरे में अपने अहबाब को
चाहें जज़्बात जिनको बताना उन्हीं से छुपाना भी!
लाख रखो जज़्ब दिल में फसाने गैरों की नज़र से
नज़र मग़र हर-वक़्त हमपर रखता है जमाना भी!
महफूज़ हवाओं से भला कौन रह पाया है 
भले कम कर दिया है गली कूचे में आना जाना भी!

वक्त अच्छा हो तो साया भी साथ चलता है

अपने पराए का पता वक्त ऐ गर्दिश में चलता है

वक्त अच्छा हो तो साया भी साथ चलता है...

नई वाली शायरी

अजीब हाल है मेरा कि मुझको मेरा दुख

किसी के मुस्करा देने पे याद आता है. 

एक शोले की हिफाजत में उम्र गुजरेगी

एक शोला जो मुझे खाक किए जाता है.


इल्म है मुझको कि मैं अच्छा नहीं हूं

सो किसी के सामने खुलता नहीं हूं

जब मैं दरिया था तो कितनी तिश्नगी थी

अब मैं सहरा हूं, मगर प्यासा नहीं हूं. 

अपने सारे राज हम उनको बताए बैठे हैं

यानी खुद को उनके चंगुल में फंसाए बैठे हैं


तुम बहुत खुश हो तो तुमसे शायरी होगी नहीं

ये सुना था तब से दिल लगाए बैठे हैं.


बस एक शख्स की खामोशी से गिला है मुझे

वही जो आईने से रोज देखता है मुझे. 

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महफिल में नाम उसका पुकारा गया था और

सब लोग थे कि मेरी तरफ देखने लगे. 


एक तो है बदन उदासी का

उसपे भी पैरहन उदासी का


कौन बिछड़ा था पहली बार यहां

किससे आया चलन उदासी का.


बिछड़ने पर तमाशा क्यों बनाएं

तुम्हारी हम जरूरत थे, नहीं हैं.


हसीन चेहरे भी रहते हैं प्यार से महरूम

हर इक फूल पे तितली कहां ठहरती है.


कभी मैं देखता हूं तेरी तस्वीर

कभी मजबूरियों को देखता हूं.


हसीन शाम भी तो साथ में गुजारी है

तुम्हारे पास शिकायत की लिस्ट सारी है.


बुरा है हाल मगर मुस्करा रहा हूं मैं

कमान टूट गई और जंग जारी है.


हमारी बाहों में है और उसका चैन नहीं

गलत ये ट्रेन में बैठी हुई सवारी है.


बातों की भी कमी नहीं होती

मिलने पर बात भी नहीं होती


अपने पहलू से बांध ले मुझको

और आवारगी नहीं होती.


तुझको कुछ और देर रोकता मैं

गर से बस आखिरी नहीं होती.


भूख थी घर का मसअला पहला

हमने उस दौर में पढ़ाई की.


मुझको सीने से मत लगाया कर

अब जरूरत नहीं दवाई की.

इससे अच्छा तो इश्क कर लेते

हमने बेकार में पढ़ाई की. 

Sunday, December 3, 2023

सपने मेरे दीपक की तरह जगमगाने लगे हैं

 सपने मेरे दीपक की तरह,

जगमग आने लगे हैं,
दिन रात नए-नए ख्वाब,
मन में आने लगे हैं,
मैं सोचती रहती हूं,
खोई खोई रहती हूं,
इन ख्यालों में,
यह मुझे रात दिन,
सताने लगे हैं,
हकीकत में,
सच करना है इनको,
यह रास्ता अपना,
दिखाने लगे,
सपने मेरे दीपक की,
तरह जगमगाने गाने लगे हैं,
नए-नए ख्वाब दिखाने लगे।।

इस जुस्तजू में आया हूं की तेरी नज़र मिले

 स जुस्तजू में आया हूं की तेरी नज़र मिले।

मेरे अरमानों का घर सपनो का शहर मिले।।
खिल चुके है गुल गुलशन में इश्क के जो।
इस मुसाफिर को केवल उनकी डगर मिले ।।
आलम ए हुस्न इस सांस पर भारी है फिर।
जीने को इस जिंदगी उस की बसर मिले।।
इस तसव्वुर को तू और तेरी तलाश फिर।
इस शायरी में उम्दा फिर तेरा ज़िक्र मिले।।
मदहोश दिल की मस्ती दिल में है कैद जो।
ये शराब पीकर मुझको फिर से सुरूर मिले।।

तू अपनी आवाज़ में गुम है मैं अपनी आवाज़ में चुप

 तू अपनी आवाज़ में गुम है मैं अपनी आवाज़ में चुप

दोनों बीच खड़ी है दुनिया आईना-ए-अल्फ़ाज़ में चुप
 
अव्वल अव्वल बोल रहे थे ख़्वाब-भरी हैरानी में
फिर हम दोनों चले गए पाताल से गहरे राज़ में चुप
 
ख़्वाब-सरा-ए-ज़ात में ज़िंदा एक तो सूरत ऐसी है
जैसे कोई देवी बैठी हो हुजरा-ए-राज़-ओ-नियाज़ में चुप
 
अब कोई छू के क्यूँ नहीं आता उधर सिरे का जीवन-अंग
जानते हैं पर क्या बतलाएँ लग गई क्यूँ पर्वाज़ में चुप
 
फिर ये खेल-तमाशा सारा किस के लिए और क्यूँ साहब
जब इस के अंजाम में चुप है जब इस के आग़ाज़ में चुप
 
नींद-भरी आँखों से चूमा दिए ने सूरज को और फिर
जैसे शाम को अब नहीं जलना खींच ली इस अंदाज़ में चुप
 
ग़ैब-समय के ज्ञान में पागल कितनी तान लगाएगा
जितने सुर हैं साज़ से बाहर उस से ज़ियादा साज़ में चुप

उबैदुल्लाह अलीम  

बहुत गंवाया मैंने तेरी बेखुदी से

 बहुत गंवाया मैंने तेरी बेखुदी से कभी शोहरत मिली तो कभी बदनामी मिली सिर्फ तेरी नाकामी से


हमने न कभी चाहा था तेरी दुनियां से जुदा होना मगर क्या करूं आप तो खफा थे मेरी नादानी से

हाल अब बद से बदतर हुआ जा रहा है तुझसे दिल लगाने से नुकसान ही हुआ मेरी नादानी से

गैरों से धोखा खाए तो हम संभल गए मगर दोस्ती कर दुश्मनी क्यूं ये न समझ सके अपनी खामी से

चाहें तो ठुकरा दें मर्ज़ी है आपकी मगर कब तक ज़ुल्म जमा होगा अब हम न करेंगे शिकवा तुम्हीं से

बगावत का इल्म हममें नहीं क्या पता था वो दौर भी आएगा जब सामना होगा इक दूजे की नाकामी से

हमारे वास्ते कोई दुआ मांगे असर तो हो

कि हमारे वास्ते कोई दुआ मांगे असर तो हो

हकीक़त में कहीं पर हो न हो आंखो में घर तो हो

तुम्हारे प्यार की बातें बताते हैं ज़माने को

तुम्हें खबरों में रखते हैं मगर तुमको खबर तो हो 

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हर एक नदिया के होंठो पर समंदर का तराना है

यहां फरहाद के आगे सदा कोई बहाना है

वही बातें पुरानी थी वही किस्सा पुराना है

तुम्हारे और मेरे बीच में फिर से जमाना है

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हमें दो पल सुरूर ए इश्क में मदहोश रहने दो

ज़ेहन की सीढियाँ उतरो अमाँ ये जोश रहने दो ,

तुम्हीं कहते थे ये मसले नज़र सुलझी तो सुलझेंगे

ज़र की बात है तो फिर ये लब खामोश रहने दो

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अभी चलता हूं रस्ते को मैं मंजिल मान लूं कैसे

मसीहा दिल को अपनी दिल का कातिल मान लूं कैसे

तुम्हारी याद के आदिम अंधरे मुझको घेरे हैं

तुम्हारे बिन जो बीते दिन उन्हें दिन मान लूं कैसे 

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हमें बेहोश कर साकी पीला भी कुछ नहीं हमको

करम भी कुछ नहीं हमको, सीला भी कुछ नहीं हमको

मोहब्बत ने दिया है सब, मोहब्बत ने लिया है सब

मिला भी कुछ नहीं हमको, गिला कुछ नहीं हमको

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कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है...

मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है

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जब भी मुंह ढक लेता हूँ तेरी ज्ल्फों की छावं में

जब भी मुंह ढक लेता हूँ तेरी ज्ल्फों की छावं में

कितने गीत उतर आत हैं मेरे मन के छांव में

एक गीत पलकों पर लिखना, एक गीत होंठों पर लिखना

यानी सारे गीत हृदय की मीठी से चोटों पर लिखना

जैसे चुभ जाता है कोई काँटा नंगे पांव में

ऐसे गीत उतर आते हैं मेरे मन के गांव में

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पलकें बंद हुईं तो जैसे धरती के उन्माद सो गए

पलकें अगर उठीं तो बिन बोले संवाद हो गए

जैसे धुप चुनरिया ओढ़े आ बैठी हों छांव में

ऐसे गीत उतर आते हैं मेरे मन के गांव में 

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कब तक गीत सुनाऊं राधा

कि मथुरा छूटी, छूटी द्वारका इन्द्रप्रस्थ ठुकराऊं 

बंसी छूठी गोकुल छूठा, कब तक चक्र उठाऊं

पिछले जन्म जानकी तुझ बिन जैसे-तैसे बीता

महासमर में रीता रीता कब तक गाऊं गीता

और अभी कितने जन्मों तक तुझसे दूर बीताऊँ

कब तक गीत सुनाऊं राधा, कब तक गीत सुनाऊं

इस पीड़ा को यार सुदामा यार सुदामा

कब तक महल दिखाऊँ

कब तक गीत सुनाऊं

दो माओं ने लाड़ लड़ाया

दो चेहरों ने चाहा, फिर भी भरी द्वारका में खुद को लगा पराया

मेरा क्या अपराध कि मेरा गांव गली घर छूठा

आंचल से बिछड़े को जग ने पीताम्बर पहनाया

जग चाहे जाते जाते भी बंसी बजाऊं

कब तक गीत सुनाऊं राधा.... 

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कि जग भर के अपराध सदा ही अपने ही शीश उठाए

रस का माखन सबने चाखा, चोर हम ही कहलाये

युग के दुर्योधन के जब जब अहंकार को कुचला

दुनिया जीती गांधारी के शाप हम ही ने खाए

मुझको गले लगाओ या बस मैं ही गले लगाऊं

कब तक गीत सुनाऊं राधा, कब तक गीत सुनाऊं 

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जगत के प्रपंचों से जब राम ऊबे

तो सरयू के जलधर में राम डूबे

वही धार यमुना में आकर मिली तो

तेरे रूप में दोनों संसार डूबे

ये संसार सागर है तू है खेवैया

अरे सुन ले मोहन बंसी बजैया

कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया


है तुझपर न्योछवर तेरी दो दो मैया

कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया


रसखान तुझपर संवारे सवैया

कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया


कोई कह रहा न अब आएगा तू

धरा पूछती है कि कब आएगा तू

कोई कह रहा अँधेरा बढ़ेगा तो 

धरती बचाने को कब आएगा तू

अंधेरा भी तू है, उजाला भी तू है

कि गोरा भी तू है काला भी तू है

कि तुझ तक पहुंचने की सुविधा भी तू है

अगर हम न पहुंचे तो दुविधा भी तू है

हमें कुछ नहीं सिर्फ इतना पता है

कि तू जग ग्वाला है हम तेरी गैया

कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया 

तूने ही चौसर की बाजी सजाई

जिसे हारना था उसे जिताई


बहुत हो अब तो धरती पर आ रे

कहीं दामिनी जंग हारे हुए है

कोई तेरे गोपी की अस्मत उतारे

कोई बदनजर तेरे राधा को ताड़े 


कुमार विश्वास

गुलज़ार की वे चुनिंदा ग़ज़लें

 1)

हम तो कितनों को मह-जबीं कहते

हम तो कितनों को मह-जबीं कहते
आप हैं इस लिए नहीं कहते

चांद होता न आसमां पे अगर
हम किसे आप सा हसीं कहते

आप के पांव फिर कहां पड़ते
हम ज़मीं को अगर ज़मीं कहते

आप ने औरों से कहा सब कुछ
हम से भी कुछ कभी कहीं कहते

आप के बा’द आप ही कहिए
वक़्त को कैसे हम-नशीं कहते

वो भी वाहिद है मैं भी वाहिद हूं
किस सबब से हम आफ़रीं कहते

2)
पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं

पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं
शाम से तेज़ हवा चलने के आसार से हैं

नाख़ुदा देख रहा है कि मैं गिर्दाब में हूं
और जो पुल पे खड़े लोग हैं अख़बार से हैं

चढ़ते सैलाब में साहिल ने तो मुंह ढांप लिया
लोग पानी का कफ़न लेने को तय्यार से हैं

कल तवारीख़ में दफ़नाए गए थे जो लोग
उन के साए अभी दरवाज़ों पे बेदार से हैं

वक़्त के तीर तो सीने पे संभाले हम ने
और जो नील पड़े हैं तिरी गुफ़्तार से हैं

रूह से छीले हुए जिस्म जहां बिकते हैं
हम को भी बेच दे हम भी उसी बाज़ार से हैं

जब से वो अहल-ए-सियासत में हुए हैं शामिल
कुछ अदू के हैं तो कुछ मेरे तरफ़-दार से हैं

3)
फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की

फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की
इक ताइर का दिल रखने की कोशिश की

कल फिर चांद का ख़ंजर घोंप के सीने में
रात ने मेरी जां लेने की कोशिश की

कोई न कोई रहबर रस्ता काट गया
जब भी अपनी रह चलने की कोशिश की

कितनी लंबी ख़ामोशी से गुज़रा हूं
उन से कितना कुछ कहने की कोशिश की

एक ही ख़्वाब ने सारी रात जगाया है
मैं ने हर करवट सोने की कोशिश की

एक सितारा जल्दी जल्दी डूब गया
मैं ने जब तारे गिनने की कोशिश की

नाम मिरा था और पता अपने घर का
उस ने मुझ को ख़त लिखने की कोशिश की

एक धुएं का मर्ग़ोला सा निकला है
मिट्टी में जब दिल बोने की कोशिश की

अब आ गया है जहाँ में तो मुस्कुराता जा

 अब आ गया है जहाँ में तो मुस्कुराता जा

चमन के फूल दिलों के कँवल खिलाता जा
 
अदम हयात से पहले अदम हयात के बा'द
ये एक पल है उसे जावेदाँ बनाता जा
 
भटक रही है अँधेरे में ज़िंदगी की बरात
कोई चराग़ सर-ए-रहगुज़र जलाता जा
 
गुज़र चमन से मिसाल-ए-नसीम-ए-सुब्ह-ए-बहार
गुलों को छेड़ के काँटों को गुदगुदाता जा
 
रह-ए-दराज़ है और दूर शौक़ की मंज़िल
गराँ है मरहला-ए-उम्र गीत गाता जा
 
बला से बज़्म में गर ज़ौक़-ए-नग़्मगी कम है
नवा-ए-तल्ख़ को कुछ तल्ख़-तर बनाता जा
 
जो हो सके तो बदल ज़िंदगी को ख़ुद वर्ना
नज़ाद-ए-नौ को तरीक़-ए-जुनूँ सिखाता जा
 
दिखा के जलवा-ए-फ़र्दा बना दे दीवाना
नए ज़माने के रुख़ से नक़ाब उठाता जा
 
बहुत दिनों से दिल-ओ-जाँ की महफ़िलें हैं उदास
कोई तराना कोई दास्ताँ सुनाता जा

Ali Sardar Jafri 

प्यार के बहुत चेहरे हैं

 मैं उसे प्यार करता

यदि वह
ख़ुद वह होती

मैं अपना हृदय खोल देता
यदि वह
अपने भीतर खुल जाती

मैं उसे छूता
यदि वह देह होती
और मेरे हाथ होते मेरे भाव!

मैं उसे प्यार करता
यदि मैं पत्ता या हवा होता
या मैं ख़ुद को नहीं जानता
मैं जब डूब रहा था
वह उभर रही थी
जिस पल उसकी झलक दिखी

मैं कभी-कभी डूब रहा हूँ
वह अभी-अभी अपने भीतर उभर रही है

मैं उसे प्यार करता
यदि वह जानती
मैं ख़ामोशी की लय में अकेला उसे प्यार करता हूँ
प्यार के बहुत चेहरे हैं।

नवीन सागर 

तुमको देखूं तो

तुमको देखूं तो

नज़रों के आगे

हज़ारों फूल

खिल जाते हैं


पथरीली राहों में

मखमली कालीन

बिछ जाते हैं

भवेश दिलशाद की गजल

1

 चुप रहा मैं तो जात बिगड़ेगी

बोलने से भी बात बिगड़ेगी

यूं भी मुश्किल है यूं भी मुश्किल है
अब तो ये काइनात बिगड़ेगी

कैदे-गम मुझसे इतनी चस्पां है
मुझपे बेशक नजात बिगड़ेगी

जिस्म बेसाया साया हो बेजिस्म
बत्ती गुल कर कि रात बिगड़ेगी

इश्क दिलशाद से न करना था
अब तो तू भी हयात बिगड़ेगी

2

कहां पहुंचेगा वो कहना जरा मुश्किल-सा लगता है
मगर उसका सफर देखो तो खुद मंजिल-सा लगता है

नहीं सुन पाओगे तुम भी खामोशी शोर में उसकी
उसे तनहाई में सुनना भरी महफिल-सा लगता है

बुझा भी है वो बिखरा भी कई टुकड़ों में तनहा भी
वो सूरत से किसी आशिक के टूटे दिल-सा लगता है

वो सपना-सा है साया-सा वो मुझमें मोह-माया-सा
वो इक दिन छूट जाना है अभी हासिल-सा लगता है

कभी बाबू कभी अफसर कभी थाने कभी कोरट
वो मुफलिस रोज सरकारी किसी फाइल-सा लगता है

वो बस अपनी ही कहता है किसी की कुछ नहीं सुनता
वो बहसों में कभी जाहिल कभी बुजदिल-सा लगता है

ये लगता है उस इक पल में कि मैं और तू नहीं हैं दो
वो पल जिसमें मुझे माजी ही मुस्तकबिल-सा लगता है

न पंछी को दिए दाने न पौधों को दिया पानी
वो जिंदा है नहीं बाहिर से जिंदादिल-सा लगता है

उसे तुम गौर से देखोगे तो दिलशाद समझोगे
वो कहने को है इक शाइर मगर नॉविल-सा लगता है

3

जिद वहीं कामयाब होती है
जहां हर शै अजाब होती है

तुमपे इज्जत जरा नहीं जंचती
हमपे तुहमत खिताब होती है

जो सवालों को कुफ्र ठहराए
वो खुदाई खराब होती है

ख्वाब कमजोर हों निहत्थे हों
दुनिया अजमल कसाब होती है

उन किताबों को अब तो दफ्ना दो
जिनसे मट्टी खराब होती है

जानिए जितना रोइए उतना
अपनी गफलत सवाब होती है

बाकी बकवास होती है दिलशाद
बात लुब्बे-लुबाब होती है

4

कभी तो सामने आ बेलिबास होकर भी
अभी तो दूर बहुत है तू पास होकर भी

तेरे गले लगूं कब तक यूं एहतियातन मैं
लिपट जा मुझसे कभी बदहवास होकर भी

तू एक प्यास है दरिया के भेस में जानां
मगर मैं एक समंदर हूं प्यास होकर भी

तमाम अहले-नजर सिर्फ ढूंढ़ते ही रहे
मुझे दिखाई दिया सूरदास होकर भी

मुझे ही छूके उठाई थी आग ने ये कसम
कि नाउमीद न होगी उदास होकर भी

5

न करीब आ न तू दूर जा ये जो फासला है ये ठीक है
न गुजर हदों से न हद बता यही दायरा है ये ठीक है

न तो आशना न ही अजनबी न कोई बदन है न रूह ही
यही जिंदगी का है फल्सफा ये जो फल्सफा है ये ठीक है

ये जरूरतों का ही रिश्ता है ये जरूरी रिश्ता तो है नहीं
ये जरूरतें ही जरूरी हैं ये जो वास्ता है ये ठीक है

मेरी मुश्किलों से तुझे है क्या तेरी उलझनों से मुझे है क्या
ये तकल्लुफात से मिलने का जो भी सिलसिला है ये ठीक है

हम अलग-अलग हुए हैं मगर अभी कंपकंपाती है ये नजर
अभी अपने बीच है काफी कुछ जो भी रह गया है ये ठीक है

मेरी फितरतों में ही कुफ्र है मेरी आदतों में ही उज्र है
बिना सोचे मैं कहूं किस तरह जो लिखा हुआ है ये ठीक है

भवेश दिलशाद