Sunday, May 28, 2023

Majrooh Sultanpuri Shayari

कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा

हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा


मिलने को यूँ तो मिला करती हैं सब से आँखें
दिल के आ जाने के अंदाज़ जुदा होते हैं

'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह 


मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया 

हमारे लब न सही वो दहान-ए-ज़ख़्म सही
वहीं पहुँचती है यारो कहीं से बात चले 


हादसे और भी गुज़रे तिरी उल्फ़त के सिवा
हाँ मुझे देख मुझे अब मेरी तस्वीर न देख 

वो लजाए मेरे सवाल पर कि उठा सके न झुका के सर
उड़ी ज़ुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज़ मचल गए 


ये रुके रुके से आँसू ये दबी दबी सी आहें
यूँही कब तलक ख़ुदाया ग़म-ए-ज़िंदगी निबाहें 

शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया 

कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा 

No comments: