हम अब किसे आईना दिखाएं
हर शख़्स आईना लिए घूमते है
कि मैंने ख़ुद को नहीं रोका है
वक़्त की ही थोड़ी पाबंदियाँ है
बदलते वक़्त ने बदले मिज़ाज
फ़िर मैं क्या उम्मीद रक्खूँ किसी से
वक़्त को क्यूँ भला बुरा कहिए
बेहतर है कि ख़ुद-ब-ख़ुद को देखें
अच्छा है कि हम वक़्त के मुसाफ़िर
वरना यादें जीना मुश्किल कर देती हैं
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