Thursday, May 25, 2023

आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के

इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के,

आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के  

ख़ल्वतों के शैदाई ख़ल्वतों में खुलते हैं  
हम से पूछ कर देखो राज़ पर्दा-दारों के  

गेसुओं की छाँव में दिल-नवाज़ चेहरे हैं  
या हसीं धुँदलकों में फूल हैं बहारों के  

पहले हँस के मिलते हैं फिर नज़र चुराते हैं  
आश्ना-सिफ़त हैं लोग अजनबी दयारों के 

तुम ने सिर्फ़ चाहा है हम ने छू के देखे हैं 
पैरहन घटाओं के जिस्म बर्क़-पारों के 

शुग़्ल-ए-मय-परस्ती गो जश्न-ए-ना-मुरादी था 
यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों के 

Sahir Ludhianvi

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