तुम्हारी हमारी सुनाने में भाई,
लगे हैं सभी इस ज़माने में भाई।
खुदी को परखने की फुर्सत नहीं है,
लगे हैं मुझे आजमाने में भाई।
मोहब्बत से ज़्यादा ग़ज़ल है ज़रूरी,
दिलों की ये दूरी मिटाने में भाई।
मोहब्बत किसी वक़्त में थी इबादत,
सुकूँ अब न है दिल लगाने में भाई।
'शिखा' ग़म छुपाने का है ये तरीका,
लगे हैं सभी मुस्कुराने में भाई।
कष्ट ये दाल रोटी का जाता नहीं,
पेट खाली हो गर कुछ भी भाता नहीं।
मीर भी इस ज़माने में रहता अगर,
उल्फ़तों के तराने सुनाता नहीं।
बिजली,पानी नहीं ना सड़क ही यहाँ,
इसलिए इस गली कोई आता नहीं।
बेवजह डरते हो इस ज़माने से तुम,
आदमी हैं सभी ये विधाता नहीं।
दुनिया में पैसे वाले मिलेंगे बहुत,
पर दुआ अब कोई भी कमाता नहीं।
रास्ता ख़ुद बनाना है सबको 'शिखा',
राह मंज़िल की कोई बताता नहीं।
तेरी महफिल में क्या आने-जाने लगे,
तब से हम भी ग़ज़ल गुनगुनाने लगे।
कल तलक चोर थे आज देखो वही,
आईना इस जहां को दिखाने लगे।
देखिए अब यहां क्या से क्या हो गया,
की ख़ुदी को ख़ुदा सब बताने लगे।
लूट है, है वबा और मुश्किल घड़ी,
आदमी, आदमी को सताने लगे।
ऐ 'दोस्त' तुम कहो अब कहां जाये हम?
आसमां ये ज़मीं सब डराने लगे।
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