हकीक़त के दौर में हकीक़त चाही
हकीक़त तो ठहरी हकीक़त कहीं मिल ना पाई
जमाना दर ब दर गुजर तो रहा हैं
मगर जमाने की ठहरीयत कहीं मिल ना पाई
यु ही बेवजह जुस्तजु में रहे हम सदा
मगर इंसा में जमीरीयत़ कहीं मिल ना पाई
जो भी मिला हैं अब सुकुं से भरा हैं
इस जैसी इंसानियत कहीं मिल ना पाई
आवाम़ बसाने में काट दिये सब
अब क्यों कहते हो शुकुनियत कहीं मिल ना पाई
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