रुस्वा होने का का डर था , हमको इस जमाने में।
इसीलिए नाम कोई लिखा नही, किसी फसाने मे।।
और गहरे हो गये हैं, ये खामोश अंधेरों के सन्नाटे।
मगर हम मसरूफ हैं घर के चिरागों को मनाने मे।।
ख्वाबों मे तेरी आमद के मुंतजिर हैं,मुद्दत से हम।
नींद मुसलसल फर्ज निभाती है हमको जगाने में।।
दरवाजे बंद हैं तो क्या,दरीचों को खुला छोड़ा है।
बाइस-ए-ताखीर फिर क्या हुई, बता तेरे आने मे।।
तुझसे मेरे गिले-शिकवे बेजा नहीं हैं, मेरे हमदम।
मगर ये लब कांपते हैं, सर-ए-महफिल बताने मे।।
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