पाँव अंधेरे में हरगिज़ हम बढ़ाये न होते
आप शौक-ए-चराग़ा ग़र जलाये न होते
आंख जम जाती शब-ए - शीत पाकर
चाॅंद का गर्द बढ़कर हटाये न होते
ग़मे-नज़दीकियां आग़ोश लेने लगी थी
बस थोड़ी देर और मुस्कुराये न होते
या खुदा हम भी कुछ और आज रहते
हुबहू सूरत - ए - हाल सुनाये न होते
कई बस्तियों में लोग ग़मगीन हो जाते
जो वादे पे चल तुम शहर आये न होते॥
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