कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं
नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है
छुप के भी आए मिरे घर तो वो दरबानों को
अपनी पाज़ेब की झंकार सुनाते आए
इतने पत्ते भी न होंगे गुलशन-ए-फ़िरदौस में
जिस क़दर फूलों के हैं अम्बार क़ैसर-बाग़ में
निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया
कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं
कहाँ ग़ुंचा कहाँ उस का दहन तंग
बढ़ाई शायरों ने बात थोड़ीकल तो आफ़त थी दिल की बेताबी
आज भी बे-क़रार सा है कुछ
वो दुश्मनी करें तो करें इख़्तियार है
हम तो अदू के दोस्त हैं दुश्मन के यार हैंपहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया
उस दिल पे हज़ार जान सदक़े
जिस दिल में है आरज़ू तुम्हारीवस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए
कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद
याद आएगी बहुत मेरी वफ़ा मेरे बाद
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