मैं छोड़ शहर के काम धाम
एक रोज सफर को निकलूंगा
जिस सफर से वापिस आना फिर
मुमकिन ही नहीं होगा शायद ।
कुछ मन ही मन खुश होंगे, कुछ मुमकिन है जश्न मनाएंगे
कुछ तो होंगे नाराज बहुत ,
कुछ याद में अश्क बहाएंगे
पर इन सबसे मैं दूर कहीं बीहड़ रस्तों पर चल चल के
एक ऐसी जगह पर पहुंचूंगा ,
जिस जगह से वापिस आना फिर
मुमकिन ही नहीं होगा शायद ।
इस रोती गाती दुनिया को बस एक गीत सुनाऊंगा
जिस गीत में जिक्र करूंगा मैं एक नन्हीं गुड़िया रानी का
जिसकी बस एक अम्मा थी ,
पर वो भी कैसे छोड़ चली ,
फिर कैसे कैसे एक बुढ़िया जो कैसे कैसे जीती थी
कैसे उस नन्हीं को पाला
और कैसे कैसे बड़ा किया ?
मैं दुनिया को बताता जाऊंगा
इस जहां में जिंदा लोग भी हैं ,
कांटों में फूल भी जिंदा हैं ।
फिर उजड़े उजड़े गांवों में मैं फूल लगाने जाऊंगा
हम मिल के बसाएंगे बस्ती, हम मिल के सजाएंगे दुनिया
फिर पन्नों पे लिखूंगा हर किस्सा
फिर छोड़ के खुद को पन्नो में एक रोज हवा हो जाऊंगा
जिस हवा से वापिस आना फिर ,
मुमकिन ही नहीं होगा शायद !
जिस सफर से वापिस आना फिर
मुमकिन ही नहीं होगा शायद !
No comments:
Post a Comment