Monday, November 2, 2020

एक मां के ना होने से घर कितना सूना लगता है।

खुशी का भी आता मंज़र कितना सूना लगता है,
एक मां के ना होने से घर कितना सूना लगता है।

तुम चलकर देखो काम सभी हो जाते हैं लेकिन,
अफ़सर ना हो तो दफ़्तर कितना सूना लगता है।

ये यादें भी, तस्वीरें भी, सोच में मेरी सजी हुई हैं,
फिर भी ह्रदय का बिस्तर कितना सूना लगता है।

बेशक सारी दुनिया में, मानवता है कांपी-कांपी,
ये दिल में ना हो तो, डर कितना सूना लगता है।

चांद-सितारे, झूमे-झूमे, रोज़ सफ़र में हैं लेकिन,
मां बिछुड़ जाए तो अम्बर कितना सूना लगता है।

दौलत भी है, शौहरत भी है, सारी दुनियादारी है,
ये मगर मंज़िल का पत्थर कितना सूना लगता है।

मां के नरम हाथों का जो हाथ फिराना दूर हुआ,
मुझे मेरी रूह का अस्तर कितना सूना लगता है।

कल तक अपना था तो, सहरा भी आबाद लगा,
अब तन्हा गुलशन होकर कितना सूना लगता है।

ज़फ़र ढह गया है कल जो ऊंचे दरख़्त का साया,
इन बहारों का भी लश्कर कितना सूना लगता है।

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