Monday, November 16, 2020

तुम्हारे नील झील-से नैन

तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 

तुम्हारे तन का रेखाकार 
वही कमनीय, कलामय हाथ 
कि जिसने रुचिर तुम्हारा देश 
रचा गिरि-ताल-माल के साथ, 

करों में लतरों का लचकाव, 
करतलों में फूलों का वास, 
तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 

उधर झुकती अरुनारी साँझ, 
इधर उठता पूनो का चाँद, 
सरों, शृंगों, झरनों पर फूट 
पड़ा है किरनों का उन्माद, 

तुम्हें अपनी बाँहों में देख 
नहीं कर पाता मैं अनुमान, 
प्रकृति में तुम बिंबित चहुँ ओर 
कि तुममें बिंबित प्रकृति अशेष। 

तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर झर्झर-से लहरे केश। 


जगत है पाने को बेताब 
नारि के मन की गहरी थाह— 
किए थी चिंतित औ’ बेचैन 
मुझे भी कुछ दिन ऐसी चाह— 

मगर उसके तन का भी भेद 
सका है कोई अब तक जान! 
मुझे है अद्भुत एक रहस्य 
तुम्हारी हर मुद्रा, हर वेश। 
तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 
कहा मैंने, मुझको इस ओर 
कहाँ फिर लाती है तक़दीर, 

कहाँ तुम आती हो उस छोर 
जहाँ है गंग-जमुन का तीर; 
विहंगम बोला, युग के बाद 
भाग से मिलती है अभिलाष; 
और... अब उचित यहीं दूँ छोड़ 
कल्पना के ऊपर अवशेष। 
तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 

मुझे यह मिट्टी अपना जान 
किसी दिन कर लेगी लयमान, 
तुम्हें भी कलि-कुसुमों के बीच 
न कोई पाएगा पहचान, 
मगर तब भी यह मेरा छंद 
कि जिसमें एक हुआ है अंग 
तुम्हारा औ’ मेरा अनुराग 
रहेगा गाता मेरा देश। 

तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश।

हरिवंशराय बच्चन

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