Thursday, November 19, 2020

करूं इस सितम का मैं क्या बयां

गयी यक ब यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार
करूं इस सितम का मैं क्या बयां, मिरा ग़म से सीना फिग़ार है

यह रिआया-ए-हिन्द तबाह हुई कहो क्या-क्या इन पे जफ़ा हुई
जिसे देखा हाकिमे-वक्त ने, कहा यह भी क़ाबिले-दार है
 
यह किसी ने ज़ुल्म भी है सुना कि दी फांसी लोगों को बेगुनह
वले कल्मागोइयों [1] की सिम्त से अभी उनके दिल में ग़ुब है
 
न था शहर देहली, यह था चमन, कहो किस तरह का था यां अमन
जो ख़िताब था वह मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है
 
यही तंग हाल जो सब का है, यह करिश्मा क़ुदरते रब का है
जो बहार थी सो ख़िज़ां हुई जो ख़िज़ां थी अब वह बहार है
 
शबो-रोज़ फूल में जो तुले, कहो ख़ारे-ग़म को वह क्या सहे
मिले तौक़ क़ैद में जब उन्हें, कहा गुल के बदले यह हार है
 
सभी जा[2] वह मातमे-सख़्त[3] है, कहो कैसी गर्दिशे-बख़्त [4] है
न वह ताज है न तख़्त है, न वह शाह है न दयार है
 
न वबाल तन पे है सर मिरा नहीं जान जाने का डर ज़रा कटे ग़म ही निकले जो दम मिरा,
मुझे अपनी जिन्दगी बार है

[1] कलमा पढ़ने वाले मुसलमान
[2] जगह
[3] शोक, विलाप
[4] भाग्य-चक्र 

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