Saturday, November 21, 2020

हवा शायरी

अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
मगर चराग़ ने लौ को संभाल रक्खा है
अहमद फ़राज़

हवा ख़फ़ा थी मगर इतनी संग-दिल भी न थी
हमीं को शमा जलाने का हौसला न हुआ
क़ैसर-उल जाफ़री

कोई चराग़ जलाता नहीं सलीक़े से
मगर सभी को शिकायत हवा से होती है
ख़ुर्शीद तलब

कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र
शहर के सारे चराग़ों को हवा जानती है
अहमद फ़राज़

छेड़ कर जैसे गुज़र जाती है दोशीज़ा हवा
देर से ख़ामोश है गहरा समुंदर और मैं
ज़ेब ग़ौरी

हवा हो ऐसी कि हिन्दोस्तां से ऐ 'इक़बाल'
उड़ा के मुझ को ग़ुबार-ए-रह-ए-हिजाज़ करे
अल्लामा इक़बाल

ख़ुश्बू को फैलने का बहुत शौक़ है मगर
मुमकिन नहीं हवाओं से रिश्ता किए बग़ैर
बिस्मिल सईदी

मेरे सूरज आ! मेरे जिस्म पे अपना साया कर
बड़ी तेज़ हवा है सर्दी आज ग़ज़ब की है
शहरयार

हवा चली तो कोई नक़्श-ए-मोतबर न बचा
कोई दिया कोई बादल कोई शजर न बचा
कैफ़ी संभली

अंदेशा है कि दे न इधर की उधर लगा
मुझ को तो ना-पसंद वतीरे सबा के हैं
इस्माइल मेरठी

मैं जानता हूं हवा दुश्मनों ने बांधी है
इधर जो तेरी गली की हवा नहीं आती
जलील मानिकपुरी

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