फिर से चाँद पे कोई ग़ज़ल
या समाज में होता छल
एक उगता नया सवेरा
या दर्द भरा कोई कल
या लिख दूँ हजारों शायरियाँ
लोगों के किये एहसानों पर
या फिरा दूँ सारी कलम की स्याही
खुद के दर्द भरे पैमानों पर।।।
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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