कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
हम इश्क के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
इब्तिदा वो थी कि जीना था मुहब्बत में मुहाल
इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया
मुहब्बत में एक ऐसा वक़्त भी दिल पर गुज़रता है
कि आंसू ख़ुश्क हो जाते हैं तुगयानी नहीं जाती
मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं
कि मंजिल पे हैं और चले जा रहे हैं
ये कह कह के दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं
हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
जान कर मिन्जुमला खासाने मेखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-व-पैमाना मुझे
यह सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत खाक-ए-वतन साकी
खुदा हाफिज़ चला में बांध कर दार-व-रसन साकी
सलामत तू तिरा मेहखाना, तेरी अंजुमन साकी
मुझे करनी है अब कुछ ख़िदमत दार-व-रसन साकी
तिरी ख़ुशी से अगर ग़म में भी ख़ुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मोहब्बत की ज़िंदगी न हुई
दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद
जहल-ए-खिरद ने दिन ये दिखाए
घट गए इंसाँ बढ़ गए साए
वफा का नाम कोई भूल कर नहीं लेता
तेरे सलूक ने चौंका दिया ज़माने को
आदमी के पास सब कुछ है मगर
एक तन्हा आदमिय्यत ही नहीं
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
रूह को भी मज़ा मोहब्बत का
दिल की हम-साएगी से मिलता है
दिल को सुकून रुह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया
दीवानगी हो अक़्ल हो उम्मीद हो कि यास
अपना वही है वक़्त पे जो काम आ गया
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे
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