ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है,
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है!
ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते,
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है!
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं,
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है!
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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