Monday, November 30, 2020

जिसकी जैसी नियत

जिसकी जैसी नीयत है, 
वो वैसी कहानी रखता है! 
कोई परिंदों के लिए बंदूक, 
तो कोई पानी रखता है! 

कुछ तो दूरी हमने भी बढ़ाई होगी

कुछ तो दूरी हमने भी बढ़ाई होगी,
वरना ये जुदाई ना होती।
कुछ तो कमी हमारी वफ़ा में भी रही होगी,
वरना इतनी बेवफाई ना होती।
हमने भी ज़रूर अपने किस्से सुनाए होंगे लोगों से,
वरना इतनी रुसवाई ना होती।
कैसे कह दूँ कि सारी खता मेरी है,
कुछ बात तो उसने भी बढ़ाई होगी।
दर्द तो हुआ मुझे बहुत पर,
दूर होकर मुझसे वो भी तो कुछ रोई होगी।
क्या हुआ जो उसे मेरा साथ पसंद नहीं?
ये रिश्ते हैं प्यार के जबरदस्ती के नहीं,
कोई और ऊपर वाले ने मेरे लिये भी बनाई होगी. 

मेरी नज़रों से गुज़र कर दिल-ओ-जां तक आओ

काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा
रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा


मैं जहां तुम को बुलाता हूं वहां तक आओ
मेरी नज़रों से गुज़र कर दिल-ओ-जां तक आओ


अब आ गया है जहां में तो मुस्कुराता जा
चमन के फूल दिलों के कंवल खिलाता जा


मय है तेरी आंखों में और मुझ पे नशा सा तारी है
नींद है तेरी पलकों में और ख़्वाब मुझे दिखलाए है


आंधियां चलती रहें अफ़्लाक थर्राते रहे
अपना परचम हम भी तूफ़ानों में लहराते रहे


सुब्ह हर उजाले पे रात का गुमां क्यूं है
जल रही है क्या धरती अर्श पे धुआं क्यूं है

इश्क़ का नग़्मा जुनूं के साज़ पर गाते हैं हम
अपने ग़म की आंच से पत्थर को पिघलाते हैं हम


सितारों के पयाम आए बहारों के सलाम आए
हज़ारों नामा-हा-ए-शौक़ अहल-ए-दिल के काम आए

न जाने छलकाए जाम कितने न जाने कितने सुबू उछाले
मगर मिरी तिश्नगी कि अब भी तिरी नज़र से शिकायतें हैं


ताकि दुनिया पे खुले उन का फ़रेब-ए-इंसाफ़
बे-ख़ता हो के ख़ताओं की सज़ा मांगते हैं

Saturday, November 28, 2020

जिंदगी शायरी

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं 
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं 

- फ़िराक़ गोरखपुरी

ज़िंदगी शायद इसी का नाम है 
दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ 

- कैफ़ भोपाली

जो गुज़ारी न जा सकी हम से 
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है 

- जौन एलिया
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया 
ज़िंदगी छोड़ दे पीछा मिरा मैं बाज़ आया 

- शाद अज़ीमाबादी
चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज-ए-हवादिस से 
अगर आसानियाँ हों ज़िंदगी दुश्वार हो जाए 

- असग़र गोंडवी

Thursday, November 26, 2020

सूखी सी अधखिली कली है


सूखी सी अधखिली कली है
परिमल नहीं, पराग नहीं।
किंतु कुटिल भौंरों के चुंबन
का है इन पर दाग नहीं॥

तेरी अतुल कृपा का बदला
नहीं चुकाने आई हूँ।
केवल पूजा में ये कलियाँ
भक्ति-भाव से लाई हूँ॥

प्रणय-जल्पना चिन्त्य-कल्पना
मधुर वासनाएं प्यारी।
मृदु-अभिलाषा, विजयी आशा
सजा रहीं थीं फुलवारी॥


किंतु गर्व का झोंका आया
यदपि गर्व वह था तेरा।
उजड़ गई फुलवारी सारी
बिगड़ गया सब कुछ मेरा॥

बची हुई स्मृति की ये कलियाँ
मैं समेट कर लाई हूँ।
तुझे सुझाने, तुझे रिझाने
तुझे मनाने आई हूँ॥

प्रेम-भाव से हो अथवा हो
दया-भाव से ही स्वीकार।
ठुकराना मत, इसे जानकर
मेरा छोटा सा उपहार॥

सुभद्राकुमारी चौहान

परिमल - 1. कुमकुम, चंदन आदि के मर्दन से उत्पन्न सुगंधि 2. कुमकुम, चंदन आदि को मलना 3. सुगंध; सुवास 4.विद्वानों की सभा

इस शहर में दिल को लगाना क्या

इंशाजी उठो अब कूच करो इस शहर में दिल को लगाना क्या।
वहशी को सुकूं से क्या मतलब जोगी का शहर में ठिकाना क्या॥

इस दिल के दरीदा[1] दामन को देखो तो सही सोचो तो सही।
जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली को फैलाना क्या॥

शब बीती चाँद भी डूब गया ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में।
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या॥

फिर हिज्र की लम्बी रात मियाँ संजोग की तो यही एक घड़ी।
जो दिल में है लब पर आने दो शर्माना क्या घबराना क्या॥
 
उस रोज़ जो उनको देखा है अब ख़्वाब का आलम लगता है।
उस रोज़ जो उनसे बात हुई वो बात भी थी अफ़साना क्या॥
 
उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें।
जिसे देख सकें पर छू न सकें वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या॥
 
उसको भी जला दुखते हुए मन एक शोला लाल भभूका बन।
यूं आंसू बन बह जाना क्या यूं माटी में मिल जाना क्या॥
 
जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूं बन में न जा बिसराम करें।
दीवानों की सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या॥

अर्थ : 1. फटा-पुराना 

Wednesday, November 25, 2020

पहले दोस्त ढूँढ लूँ

दुश्मन तो मिल ही जायेंगे,
ताज रखते ही सिर का. 
पहले दोस्त ढूँढ लूँ,
लिबास पहन फकीरी का. 

कोई उम्मीद नहीं करते।

कोई उम्मीद हम नहीं करते।
आप अहदे वफ़ा नहीं करते।
गर ज़रूरी थे ज़िन्दगी के लिए,
आप खुद से जुदा नहीं करते।
मेरा होना अज़ीज़ है शायद,
आप इतनी दुआ नहीं करते।
फैसला छोड़ते मुकद्दर पे,
आप रस्मे अदा नहीं करते।

Tuesday, November 24, 2020

हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा

मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी
वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा

वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे

कैसे कह दूं कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की


अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई

हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
क्या ख़बर थी कि रग-ए-जां में उतर जाएगा


वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया
बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता

यूं बिछड़ना भी बहुत आसां न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ कर दोबारा देखना


कांप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में
मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई

उस के यूं तर्क-ए-मोहब्बत का सबब होगा कोई
जी नहीं ये मानता वो बेवफ़ा पहले से था


हाथ मेरे भूल बैठे दस्तकें देने का फ़न
बंद मुझ पर जब से उस के घर का दरवाज़ा हुआ

ज़िंदगी किस तरह बसर होगी दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में

सर ही अब फोड़िए नदामत में
नींद आने लगी है फ़ुर्क़त में

हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर
सोचता हूँ तिरी हिमायत में

रूह ने इश्क़ का फ़रेब दिया
जिस्म को जिस्म की अदावत में

अब फ़क़त आदतों की वर्ज़िश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में

इश्क़ को दरमियाँ न लाओ कि मैं
चीख़ता हूँ बदन की उसरत में

ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी हैं मुरव्वत में

वो जो ता'मीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में

ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में

फिर बनाया ख़ुदा ने आदम को
अपनी सूरत पे ऐसी सूरत में

ऐ ख़ुदा जो कहीं नहीं मौजूद
क्या लिखा है हमारी क़िस्मत में

आती तो है हर घड़ी हमकों उनकी याद

बेचैन दिल को कहीं आराम नहीं आता,
इश्क़ में कोई तज़ुर्बा काम नहीं आता।

आती तो है हर घड़ी हमकों उनकी याद,
मजबूर लबों पर उनका नाम नहीं आता।

अक़्सर छुप छुप कर सताया करता है मुझे,
दर्द ए दिल कभी भी सरेआम नहीं आता।

इश्क ज़ज्बात शायरी

कैसे कहें कि तुझको भी हम से है वास्ता कोई
तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया
जौन एलिया

ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे
अहमद फ़राज़

दिल की तकलीफ़ कम नहीं करते
अब कोई शिकवा हम नहीं करते
जौन एलिया

कब वो सुनता है कहानी मेरी
और फिर वो भी ज़बानी मेरी
मिर्ज़ा ग़ालिब

रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती
इब्न-ए-इंशा

बड़ा मज़ा हो जो महशर में हम करें शिकवा
वो मिन्नतों से कहें चुप रहो ख़ुदा के लिए
दाग़ देहलवी

क्यूं हिज्र के शिकवे करता है क्यूं दर्द के रोने रोता है
अब इश्क़ किया तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है
हफ़ीज़ जालंधरी

कहने देती नहीं कुछ मुंह से मुहब्बत मेरी
लब पे रह जाती है आ आ के शिकायत मेरी
दाग़ देहलवी

गिला भी तुझ से बहुत है मगर मुहब्बत भी
वो बात अपनी जगह है ये बात अपनी जगह
बासिर सुल्तान काज़मी

मुहब्बत ही में मिलते हैं शिकायत के मज़े पैहम
मुहब्बत जितनी बढ़ती है शिकायत होती जाती है
शकील बदायूंनी

धूप शायरी

वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया
लिपट रही है याद जिस्म से लिहाफ़ की तरह
- मुसव्विर सब्ज़वारी

जाती है धूप उजले परों को समेट के 
ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के 
- शकेब जलाली

तेज़ धूप में आई ऐसी लहर सर्दी की
मोम का हर इक पुतला बच गया पिघलने से
- क़तील शिफ़ाई


तुम तो सर्दी की हसीं धूप का चेहरा हो जिसे
देखते रहते हैं दीवार से जाते हुए हम
- नोमान शौक़

लगी रहती है अश्कों की झड़ी गर्मी हो सर्दी हो
नहीं रुकती कभी बरसात जब से तुम नहीं आए
- अनवर शऊर


अब की सर्दी में कहाँ है वो अलाव सीना
अब की सर्दी में मुझे ख़ुद को जलाना होगा
- नईम सरमद

तेज़ धूप में आई ऐसी लहर सर्दी की
मोम का हर इक पुतला बच गया पिघलने से
- क़तील शिफ़ाई

तुझे हम दोपहर की धूप में देखेंगे ऐ ग़ुंचे
अभी शबनम के रोने पर हँसी मालूम होती है
- शफ़ीक़ जौनपुरी

इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
क्या हाल पेड़ कटते ही बस्ती का हो गया
- नोमान शौक़

हर तरफ़ धूप की चादर को बिछाने वाला
काम पर निकला है दुनिया को जगाने वाला
- साजिद प्रेमी

आँखों में चुभ रही है गुज़रती रुतों की धूप
जल्वा दिखाए अब तो नए मौसमों की धूप
- नासिर ज़ैदी

इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए
दूजा ज़ुल्फ़ों की छाँव में सुख की सेज पे सोए
- हबीब जालिब

धूप हालात की हो तेज़ तो और क्या माँगो
किसी दामन की हवा ज़ुल्फ़ का साया माँगो
- आसी रामनगरी

दुनिया मुट्ठी में भरो तो जिन्दगी है.

मुश्किलों से दोस्ती करो तो जिन्दगी है
आन की हर बात पर मरो तो जिन्दगी है
आओ हम आदत ही ऐसी बना ले अब तो
हर कदम दांव पर धरो तो जिन्दगी है
ये सफर सुहाना तुम्हारा साथ होने से
पांव चांद पर धरो तो जिन्दगी है
ये मौसम ये माहौल ये धड़कते दिल
इनमें रंग अपना भरो तो जिन्दगी है
उड़े स्वप्निल पाखी आस्माँ की राह से आगे
दुनिया मुट्ठी में भरो तो जिन्दगी है. 

Sunday, November 22, 2020

अधूरे सपने सच बनाने को

ख्वाबों को हकीकत बनाने को
दिन रात मेहनत, मैं करती हूं
कुछ कर दिखाने की चाहत में
सिर झुकाए,मैं खड़ी हूं
लिखने अपनी तकदीर को
कलम साथ लिए,मैं चलती हूं
अतीत को सजाने
वर्तमान में, मैं तपती हूं
अधूरे सपने सच बनाने को
नयी राह,मैं ढूंढती हूं
किसी का सहारा बनने को
खुद के साथ,मैं खड़ी हूं

पत्तों की तरह टूटकर शाखों से हम बिखर नहीं सकते

जो चाहे हो जाए समझौता उसूलों से हम कर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की इन धमकियों से हम डर नहीं सकते

उसूलों के शज़र से लिपटे हैं शहद के छत्तों की तरह
पत्तों की तरह टूटकर शाखों से हम बिखर नहीं सकते

हयात के सफर में अब तक अंगारों पर चले हैं
कांटों में पले हैं रास्ते के शूलों से हम डर नहीं सकते

पहले क्यों बिठाया था उठाकर हमें अपने ठिकानों से
अब ए जिन्दगी तेरे शानों से हम उतर नहीं सकते

मेरी ख़ामोशी को नाराज़गी कहते हैं

यूँ ही चुपचाप पड़े रहने को आप ज़िन्दगी कहते हैं
तो कहते रहिये

थोड़ा झुकने को आप बंदगी कहते हैं
तो कहते रहिये

आपके बस की नहीं हैं ये हुस्न की बातें
ज़ुल्फ के खम को आप पेचीदगी कहते हैं
तो कहते रहिये

बड़े मगरूर रहे बुलाने पे नहीं आते हैं
अगर आ ही गए तो उखड़े से नजर आते हैं
ऐसे आने को आप मौजूदगी कहते हैं
तो कहते रहिए

उनकी अनदेखी मेरी जान लिए जाती है
लम्हा लम्हा मुझे बीमार किए जाती है
इसे आप ज़ुल्म की बानगी कहते हैं
तो कहते रहिए

सामने मीठा पीठ पीछे बुराई का ज़हर
ऐसे विकार को आप सादगी कहते हैं
तो कहते रहिए

अपने हालात पर हर वक्त बिसूरते रहना
ऐसे रोने को आप संजीदगी कहते हैं
तो कहते रहिये
मुझे धमका के आखिर आपने रुला ही दिया
ऐसे व्यवहार को आप दिल्लगी कहते हैं
तो कहते रहिए

ठोकर खाता हूं और फिर गिर के संभल जाता हूं
मेरे गिरने को आप शर्मिंदगी कहते हैं
तो कहते रहिये

भीड़ के शोर में चुपचाप खड़ा रहता हूं
मैं किसी और से नहीं खुद से ख़फा रहता हूं
मेरी ख़ामोशी को नाराज़गी कहते हैं
तो कहते रहिए

हर तरफ धूल है धुन्ध है धुआँ है मगर
इसे मौसम की आप ताज़गी कहते हैं
तो कहते रहिए

Saturday, November 21, 2020

हवा शायरी

अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
मगर चराग़ ने लौ को संभाल रक्खा है
अहमद फ़राज़

हवा ख़फ़ा थी मगर इतनी संग-दिल भी न थी
हमीं को शमा जलाने का हौसला न हुआ
क़ैसर-उल जाफ़री

कोई चराग़ जलाता नहीं सलीक़े से
मगर सभी को शिकायत हवा से होती है
ख़ुर्शीद तलब

कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र
शहर के सारे चराग़ों को हवा जानती है
अहमद फ़राज़

छेड़ कर जैसे गुज़र जाती है दोशीज़ा हवा
देर से ख़ामोश है गहरा समुंदर और मैं
ज़ेब ग़ौरी

हवा हो ऐसी कि हिन्दोस्तां से ऐ 'इक़बाल'
उड़ा के मुझ को ग़ुबार-ए-रह-ए-हिजाज़ करे
अल्लामा इक़बाल

ख़ुश्बू को फैलने का बहुत शौक़ है मगर
मुमकिन नहीं हवाओं से रिश्ता किए बग़ैर
बिस्मिल सईदी

मेरे सूरज आ! मेरे जिस्म पे अपना साया कर
बड़ी तेज़ हवा है सर्दी आज ग़ज़ब की है
शहरयार

हवा चली तो कोई नक़्श-ए-मोतबर न बचा
कोई दिया कोई बादल कोई शजर न बचा
कैफ़ी संभली

अंदेशा है कि दे न इधर की उधर लगा
मुझ को तो ना-पसंद वतीरे सबा के हैं
इस्माइल मेरठी

मैं जानता हूं हवा दुश्मनों ने बांधी है
इधर जो तेरी गली की हवा नहीं आती
जलील मानिकपुरी

वाणी तू लाजवाब है

वाह रे वाणी तू लाजवाब है।
शब्दों और स्वरों का मोहताज।।
तेरे इस शब्द में कोमलता और मधुरता
का वास है
तू जो चाहे तो गिरे को उठा ले
और उसे चलना सिखा दे।
न चाहे तो उठे को गिरा दे।।
वाणी जब निकले स्वर बन कर।
तो विश्व स्वर मय हो जाएं।।
वाणी जब निकले भाषा बन के
तब तू साहित्य व कविता में
मोती बन गुंथ जाते हो
कवियों की लेखनी से गीत बन
स्वरों में ढल जाती हो
वाणी तुम ही ओम् शब्द बन
ब्रम्हांड में गुंजन करती हो
सचमुच वाणी तू लाजवाब है
स्वरों और शब्दों का मोहताज है
वाह रे वाणी तू लाजवाब है

मुझको बेगैरत करके तुम भी

मुझको बेगैरत करके तुम भी,
आवारा होते तो अच्छा होता।
मुझको यूं दीवाना करके,
तुम भी दीवाना होते, तो अच्छा होता।।
मेरी सुध बुध खोने वाले,
तुम भी बेसुध होते तो अच्छा होता।
मुझको खुद से अनजाना करके,तुम भी ,
खुद से बेगाना होते तो अच्छा होता ।।

कभी जब तेरी याद आ जाये है

कभी जब तेरी याद आ जाये है
दिलों पर घटा बन के छा जाये है

शबे-यास में कौन छुप कर नदीम
मेरे हाल पर मुसकुरा जाये है
 

महब्बत में ऐ मौत ऐ ज़िन्दगी
मरा जाये है या जिया जाये है

पलक पर पसे-तर्के-ग़म गाहगाह
सितारा कोई झिलमिला जाये है
 

तेरी याद शबहा-ए-बे-ख़्वाब में
सितारों की दुनिया बसा जाये है

जो बे-ख़्वाब रक्खे है ता ज़िन्दगी
वही ग़म किसी दिन सुला जाये है
 
न सुन मुझसे हमदम मेरा हाल-ज़ार
दिले-नातवाँ सनसना जाये है

ग़ज़ल मेरी खींचे है ग़म की शराब
पिये है वो जिससे पिया जाये है
 
मेरी शाइरी जो है जाने-नशात
ग़मों के ख़ज़ाने लुटा जाये है

मुझे छोड़ कर जाये है तेरी याद
कि जीने का एक आसरा जाय है
 
मुझे गुमरही का नहीं कोई ख़ौफ़
तेरे घर को हर रास्ता जाये है

सुनायें तुम्हें दास्ताने-'फ़िराक़'
मगर कब किसी से सुना जाये है

Friday, November 20, 2020

ऐसा कुछ करके दिखलाना

जीवन है क्षणिक तुम्हारा
भूल कभी कोई न जाना
बनकर सूरज इस वसुधा का
जर्रे जर्रे को चमकाना ||
सूरज ,चांद सितारे छुपते
हम ,तुमने भी है एक दिन जाना
नाम रहे जो जग में रोशन
ऐसा कुछ करके दिखलाना
बनकर गुल इस वसुधा का
जर्रे जर्रे को दमकाना ||
जैसा चाहते हो औरों से
वैसा ही करके दिखलाना
गर प्रकाश में चाहो रहना
प्रकाश बन कर जग में है छाना
बनकर खुशियां इस वसुधा की
जर्रे जर्रे को हर्षाना ||
किस ओर है मंजिल ,किस ओर जाना
अनदेखी राहें भटक तुम न जाना
संजोए हैं जो सपने ,जीवन में अपने
पूरा उन्हें करके है दिखाना
बनकर पुष्प इस वसुधा का
जर्रे जर्रे को महकाना ||
'प्रभात ' समय और पानी की धारा
दोनों कभी न रुक सकते हैं
वे ही सिर धुन धुन रोते हैं
जिनके साथ न वे चलते हैं
हिम्मत और लगन से डरकर
आफत सदैव छिपती है
हो निडर आगे बढ़ो तुम
सुखद सपनों मे न फूलो
हर व्यथा की घूंट पीकर
कठिनाइयों के बीच झूलो
हिम्मत का पतवार पकड़ लो
फिर तुम अपनी नाव चलाओ
फिर सफलता मिलकर रहेगी
नियति भी तुमसे थर्राकर
आनंद की वर्षा करेगी ||

हसरतें हैं जिदंगी की ,आसमानों सा हो जाना

हसरतें हैं जिदंगी की ,आसमानों सा हो जाना
गुजरते हुए लम्हों में खुद को ही पाना।

देखता नील समुंदर, कोरे कागजों सी जिंदगी,
लम्हों में हसरतें बादलों सा भर जाना।

रातों में तारो संग, आभूषण सा सज जाता
जिंदगी की गलियों में सदा चलते ही जाना।

इंसान हूँ इसलिए भगवान से लड़ जाता हूँ

इंसान हूँ इसलिए भगवान से लड़ जाता हूँ
कभी दुश्मन से तो कभी दोस्त से लड़ जाता हूँ
सुकून मिलता नहीं इस बेडौल दुनिया में,
कभी झूठ से तो कभी सच से लड़ जाता हूँ।

बेगैरत बेहया कई लोग यहां मिलते हैं,
दूसरे के ग़मों में कई हँसते हुए मिलते हैं।
कुछ पैदा करते हैं औरों के लिए मुश्किलें,
कुछ अपनों के ही सरदर्द बने मिलते हैं।

गरीबों का मसीहा बन उनका ही खून चूसने वाले,
सफेद पोशाक में कई काले दिल मिलते हैं।
ऐसे लोगों से बेवजह ही लड़ जाता हूँ।
पागल हूँ इतना कि यमराज से लड़ जाता हूँ।
इंसान हूँ इसलिए भगवान से लड़ जाता हूँ।
कभी दुश्मन से तो कभी दोस्त से लड़ जाता हूँ।

Thursday, November 19, 2020

संसार पूजता जिन्हें तिलक


संसार पूजता जिन्हें तिलक,
रोली, फूलों के हारों से,
मैं उन्हें पूजता आया हूँ
बापू ! अब तक अंगारों से
 
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अंगार,विभूषण यह उनका
विद्युत पीकर जो आते हैं
ऊँघती शिखाओं की लौ में
चेतना नई भर जाते हैं।
 
विज्ञापन

उनका किरीट जो भंग हुआ
करते प्रचंड हुंकारों से
रोशनी छिटकती है जग में
जिनके शोणित के धारों से।
 
झेलते वह्नि के वारों को
जो तेजस्वी बन वह्नि प्रखर
सहते हीं नहीं दिया करते
विष का प्रचंड विष से उत्तर।
 
अंगार हार उनका, जिनकी
सुन हाँक समय रुक जाता है
आदेश जिधर, का देते हैं
इतिहास उधर झुक जाता है
 
अंगार हार उनका की मृत्यु ही
जिनकी आग उगलती है
सदियों तक जिनकी सही
हवा के वक्षस्थल पर जलती है ।
 
पर तू इन सबसे परे; देख
तुझको अंगार लजाते हैं,
मेरे उद्वेलित-जलित गीत
सामने नहीं हों पाते हैं।


तू कालोदधि का महास्तम्भ,आत्मा के नभ का तुंग केतु।
बापू ! तू मर्त्य, अमर्त्य, स्वर्ग, पृथ्वी, भू, नभ का महा सेतु।
तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है।
जितना कुछ कहूँ मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है।
लज्जित मेरे अंगार; तिलक माला भी यदि ले आऊँ मैं।
किस भांति उठूँ इतना ऊपर? मस्तक कैसे छू पाँऊं मैं।
ग्रीवा तक हाथ न जा सकते, उँगलियाँ न छू सकती ललाट।
वामन की पूजा किस प्रकार, पहुँचे तुम तक मानव, विराट। 

तुंग- 1. पर्वत 2. पुन्नाग का वृक्ष; पश्चिमी हिमालय क्षेत्र का एक झाड़दार पेड़; एरंडी 3. नारियल 4. ऊँचाई 5. समूह 6. बहुत ऊँचा; उच्च 7. तीव्र; प्रचंड; उग्र 8. मुख्य; प्रधान। 

कौन जाने कब अमन से भरी सहर होगी।

कौन जाने कब अमन से भरी सहर होगी।
मेरे चमन की हवा कब तक जहर होगी॥

मजलूमों की, गरीबों की, सुनी जाए सदा।
ऐसी सुनवाई ख़ुदा जाने किस पहर होगी॥

काटें बीज कर, उम्मीद ख़ुशी की जगाना।
ऐसी साजिश खुद के लिए ही कहर होगी॥

जिंदा हो गर खुदी से, जग से, सवाल करो।
हर गली हर घर इंकलाब की लहर होगी॥

देखो रिवाज बना "मनी" मतलब, फरेब का।
उम्मीद नहीं, दिलों में इश्क की बह्र होगी॥

- मनिंदर सिंह "मनी"

करूं इस सितम का मैं क्या बयां

गयी यक ब यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार
करूं इस सितम का मैं क्या बयां, मिरा ग़म से सीना फिग़ार है

यह रिआया-ए-हिन्द तबाह हुई कहो क्या-क्या इन पे जफ़ा हुई
जिसे देखा हाकिमे-वक्त ने, कहा यह भी क़ाबिले-दार है
 
यह किसी ने ज़ुल्म भी है सुना कि दी फांसी लोगों को बेगुनह
वले कल्मागोइयों [1] की सिम्त से अभी उनके दिल में ग़ुब है
 
न था शहर देहली, यह था चमन, कहो किस तरह का था यां अमन
जो ख़िताब था वह मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है
 
यही तंग हाल जो सब का है, यह करिश्मा क़ुदरते रब का है
जो बहार थी सो ख़िज़ां हुई जो ख़िज़ां थी अब वह बहार है
 
शबो-रोज़ फूल में जो तुले, कहो ख़ारे-ग़म को वह क्या सहे
मिले तौक़ क़ैद में जब उन्हें, कहा गुल के बदले यह हार है
 
सभी जा[2] वह मातमे-सख़्त[3] है, कहो कैसी गर्दिशे-बख़्त [4] है
न वह ताज है न तख़्त है, न वह शाह है न दयार है
 
न वबाल तन पे है सर मिरा नहीं जान जाने का डर ज़रा कटे ग़म ही निकले जो दम मिरा,
मुझे अपनी जिन्दगी बार है

[1] कलमा पढ़ने वाले मुसलमान
[2] जगह
[3] शोक, विलाप
[4] भाग्य-चक्र 

Wednesday, November 18, 2020

अपने ही मन से कुछ बोलें - अटल बिहारी वाजपेयी

अपने ही मन से कुछ बोलें

क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें! 


पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
 

पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
 
जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
 
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
 
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें! 

अविरत- विराम का अभाव; नैरंतर्य; निरंतरता; विरामरहित; निरंतर; लगातार; अनिवृत्त; लगा हुआ; हमेशा; सदा।  

-अटल बिहारी वाजपेयी

अन-गिनत चाहतों के झकोलों की ज़द में

ज़रा उस ख़ुद अपने ही 
जज़्बों से मजबूर लड़की को देखो 
 इक शाख़-ए-गुल की तरह 
अन-गिनत चाहतों के झकोलों की ज़द में 
उड़ी जा रही है 
ये लड़की 

जो अपने ही फूल ऐसे कपड़ों से शरमाती 
आँचल समेटे निगाहें झुकाए चली जा रही है 
जब अपने हसीं घर की दहलीज़ पर जा रुकेगी 
तो मुख मोड़ कर मुस्कुराएगी जैसे 
अभी उस ने इक घात में बैठे 
दिल को पसंद आने वाले 
शिकारी को धोका दिया है 

प्रिय मिलने का वचन भरो तो !

सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ 
प्रिय मिलने का वचन भरो तो ! 

पलकों-पलकों शूल बुहारूँ 
अँसुअन सींचू सौरभ गलियाँ 
भँवरों पर पहरा बिठला दूँ 
कहीं न जूठी कर दें कलियाँ 
फूट पडे पतझर से लाली 
तुम अरुणारे चरन धरो तो !


रात न मेरी दूध नहाई 
प्रात न मेरा फूलों वाला 
तार-तार हो गया निमोही 
काया का रंगीन दुशाला 
जीवन सिंदूरी हो जाए 
तुम चितवन की किरन करो तो ! 


सूरज को अधरों पर धर लूँ 
काजल कर आँजूँ अँधियारी 
युग-युग के पल छिन गिन-गिनकर 
बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी 
साँसों की ज़ंजीरें तोड़ूँ 
तुम प्राणों की अगन हरो तो ! 

- भारत भूषण

Tuesday, November 17, 2020

हिफाजत शायरी

सुख़न किया जो ख़मोशी से शायरी जागी
चराग़ लफ़्ज़ों के जल उट्ठे रौशनी जागी
- शहपर रसूल

वो कौन हैं फूलों की हिफ़ाज़त नहीं करते
सुनते हैं जो ख़ुशबू से मोहब्बत नहीं करते
- खुर्शीद अकबर

इन आँसुओं की हिफ़ाज़त बहुत ज़रूरी है
अँधेरी रात में जुगनू भी काम आते हैं
- माजिद देवबंदी

तुम्हारे सच की हिफ़ाज़त में यूँ हुआ अक्सर
कि अपने-आप को झूटा बना लिया मैं ने
- सरफ़राज़ नवाज़

हाथ में अपने हिफ़ाज़त का असा ले जाना
घर से जाना तो बुज़ुर्गों की दुआ ले जाना
- एजाज़ अंसारी

मैं यूँ ही नहीं अपनी हिफ़ाज़त में लगा हूँ
मुझ में कहीं लगता है कि रक्खा हुआ तू है
- अभिषेक शुक्ला

न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
खिंची है हर तरफ़ इक चार दीवारी सी कोई
- ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

हिफ़ाज़त हर किसी की वो बड़ी ख़ूबी से करता है
हवा भी चलती रहती है दिया भी जलता रहता है
- निशांत श्रीवास्तव नायाब

ज़मीं पर हो अपनी हिफ़ाज़त करो
ख़ुदा तो मियाँ आसमानों में है
- अमीर क़ज़लबाश

ये माँ की दुआएँ हिफ़ाज़त करेंगी
ये ता'वीज़ सब की नज़र काटता है
- जतिन्दर परवाज़

चमकते चाँद सितारों को दफ़्न कर आए
बुझे चराग़ को रक्खा गया हिफ़ाज़त से
- नोमान शौक़

मैं गुलिस्ताँ की हिफ़ाज़त की दुआ करता हूँ
बिजलियाँ मेरे नशेमन पे गिरा करती हैं
- अफ़ज़ल इलाहाबादी

कई ज़माने की सख़्ती भी झेल लेते हैं
कई वजूद हिफ़ाज़त से टूट जाते हैं
- इनाम कबीर

सफर कहां रुकता है

सफ़र कहां रुकता है सफ़र जारी रहता
आज इस राह पर कल किसी राह पर
जब तक मंजिल ना मिले
जब तक खूद से ना मिले
जब तक उम्मीद ना छूटे
जब तक हौसले ना टूटे
जब तक शिखर पर कदम ना हो
जब तक शिखर पर हम ना हो
जब तक सांस सांस ना छूटे
जब तक एक अन्धकार ना छंटे
जब तक कोहरा यादों का ना घटे
जब तक खुद को खोज ना लें
सफ़र कहां रुकता है
सफ़र जारी रहता है

Monday, November 16, 2020

तुम्हारे नील झील-से नैन

तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 

तुम्हारे तन का रेखाकार 
वही कमनीय, कलामय हाथ 
कि जिसने रुचिर तुम्हारा देश 
रचा गिरि-ताल-माल के साथ, 

करों में लतरों का लचकाव, 
करतलों में फूलों का वास, 
तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 

उधर झुकती अरुनारी साँझ, 
इधर उठता पूनो का चाँद, 
सरों, शृंगों, झरनों पर फूट 
पड़ा है किरनों का उन्माद, 

तुम्हें अपनी बाँहों में देख 
नहीं कर पाता मैं अनुमान, 
प्रकृति में तुम बिंबित चहुँ ओर 
कि तुममें बिंबित प्रकृति अशेष। 

तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर झर्झर-से लहरे केश। 


जगत है पाने को बेताब 
नारि के मन की गहरी थाह— 
किए थी चिंतित औ’ बेचैन 
मुझे भी कुछ दिन ऐसी चाह— 

मगर उसके तन का भी भेद 
सका है कोई अब तक जान! 
मुझे है अद्भुत एक रहस्य 
तुम्हारी हर मुद्रा, हर वेश। 
तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 
कहा मैंने, मुझको इस ओर 
कहाँ फिर लाती है तक़दीर, 

कहाँ तुम आती हो उस छोर 
जहाँ है गंग-जमुन का तीर; 
विहंगम बोला, युग के बाद 
भाग से मिलती है अभिलाष; 
और... अब उचित यहीं दूँ छोड़ 
कल्पना के ऊपर अवशेष। 
तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 

मुझे यह मिट्टी अपना जान 
किसी दिन कर लेगी लयमान, 
तुम्हें भी कलि-कुसुमों के बीच 
न कोई पाएगा पहचान, 
मगर तब भी यह मेरा छंद 
कि जिसमें एक हुआ है अंग 
तुम्हारा औ’ मेरा अनुराग 
रहेगा गाता मेरा देश। 

तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश।

हरिवंशराय बच्चन

मेरा मन न जाने क्यों

मेरा मन न जाने क्यों?
पवन संग उड़ना चाहे
घटाओं संग बरसना चाहे
कोयल संग कूकना चाहे
फूलो संग महकना चाहे
मेरा मन न जाने क्यों?

आसमानों पर घर बनाऊं
चांद तारों संग टिमटिमाऊं
सुबह की बेला जब आए
सूरज संग किरणें फैलाऊं
आशाओं के फूल खिलाए
मेरा मन न जाने क्यों?

धरा ओढ़े धानी चुनरिया
मेरा मन हो जाए बावरिया
मिट्टी की सोंधी खुशबू आए
मन का आंगन पुलकित हो जाए
मधुर वाणी से अमृत बरसाए
मेरा मन न जाने क्यों?

तुम्हारे नील झील-से नैन

तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 

तुम्हारे तन का रेखाकार 
वही कमनीय, कलामय हाथ 
कि जिसने रुचिर तुम्हारा देश 
रचा गिरि-ताल-माल के साथ, 

करों में लतरों का लचकाव, 
करतलों में फूलों का वास, 
तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 

उधर झुकती अरुनारी साँझ, 
इधर उठता पूनो का चाँद, 
सरों, शृंगों, झरनों पर फूट 
पड़ा है किरनों का उन्माद, 

तुम्हें अपनी बाँहों में देख 
नहीं कर पाता मैं अनुमान, 
प्रकृति में तुम बिंबित चहुँ ओर 
कि तुममें बिंबित प्रकृति अशेष। 

तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर झर्झर-से लहरे केश। 


जगत है पाने को बेताब 
नारि के मन की गहरी थाह— 
किए थी चिंतित औ’ बेचैन 
मुझे भी कुछ दिन ऐसी चाह— 

मगर उसके तन का भी भेद 
सका है कोई अब तक जान! 
मुझे है अद्भुत एक रहस्य 
तुम्हारी हर मुद्रा, हर वेश। 
तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 
कहा मैंने, मुझको इस ओर 
कहाँ फिर लाती है तक़दीर, 

कहाँ तुम आती हो उस छोर 
जहाँ है गंग-जमुन का तीर; 
विहंगम बोला, युग के बाद 
भाग से मिलती है अभिलाष; 
और... अब उचित यहीं दूँ छोड़ 
कल्पना के ऊपर अवशेष। 
तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश। 

मुझे यह मिट्टी अपना जान 
किसी दिन कर लेगी लयमान, 
तुम्हें भी कलि-कुसुमों के बीच 
न कोई पाएगा पहचान, 
मगर तब भी यह मेरा छंद 
कि जिसमें एक हुआ है अंग 
तुम्हारा औ’ मेरा अनुराग 
रहेगा गाता मेरा देश। 

तुम्हारे नील झील-से नैन, 
नीर निर्झर-से लहरे केश।

हरिवंशराय बच्चन

तिरी ख़ुशी से अगर ग़म में भी ख़ुशी न हुई

जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग 

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

हम इश्क के मारों का इतना ही फ़साना है 
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है 

इब्तिदा वो थी कि जीना था मुहब्बत में मुहाल
इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया 

मुहब्बत में एक ऐसा वक़्त भी दिल पर गुज़रता है 
कि आंसू ख़ुश्क हो जाते हैं तुगयानी नहीं जाती

मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं 
कि मंजिल पे हैं और चले जा रहे हैं 

ये कह कह के दिल को बहला रहे हैं 
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं 


हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं 
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं

जान कर मिन्जुमला खासाने मेखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-व-पैमाना मुझे 


यह सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत खाक-ए-वतन साकी
खुदा हाफिज़ चला में बांध कर दार-व-रसन साकी
सलामत तू तिरा मेहखाना, तेरी अंजुमन साकी
मुझे करनी है अब कुछ ख़िदमत दार-व-रसन साकी 

तिरी ख़ुशी से अगर ग़म में भी ख़ुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मोहब्बत की ज़िंदगी न हुई
दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद 

जहल-ए-खिरद ने दिन ये दिखाए
घट गए इंसाँ बढ़ गए साए
वफा का नाम कोई भूल कर नहीं लेता
तेरे सलूक ने चौंका दिया ज़माने को 

आदमी के पास सब कुछ है मगर
एक तन्हा आदमिय्यत ही नहीं
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
रूह को भी मज़ा मोहब्बत का
दिल की हम-साएगी से मिलता है
 

दिल को सुकून रुह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया
दीवानगी हो अक़्ल हो उम्मीद हो कि यास
अपना वही है वक़्त पे जो काम आ गया
 

उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे

छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार

“बिजलियाँ, लपटें आशियाँ और हम 
हर तरफ़ फैलता धुआँ और हम।” 


दीवारो-दर से उतर के परछाइयाँ बोलती हैं 
कोई नहीं बोलता जब तन्हाइयाँ बोलती हैं।  
सुनने की मुहलत मिले तो आवाज़ है पत्थरों में 
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियाँ बोलती हैं।

चलती-फिरती धूप-छांव से चेहरा बाद में बनता है 
पहले पहले सभी ख़्यालों से तस्वीर बनाते हैं। 
आँखों देखी कहने वाले पहले भी कम-कम ही थे 
अब तो सब ही सुनी सुनाई बातों को दोहराते हैं। 
इस धरती पर आकर, अपना कुछ खो जाता है 
कुछ रोते हैं, कुछ इस ग़म में अपनी ग़ज़ल सजाते हैं। 

"मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन, 
आवाज़ों के बाज़ारों में खामोशी पहचाने कौन। 
किरन-किरन अलसाता सूरज पलक-पलक खुलती नीदें 
धीमे -धीमें बिखर रहा है ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन।" 

"धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो 
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो। 
सिर्फ़ आंखों से ही दुनिया नहीं देखी जाती 
दिल की धड़कन को भी बीनाइ बनाकर देखो।" 

"कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है 
सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है" 

"कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता 
कहीं ज़मीऩ कहीं आस्मां नहीं मिलता" 

"कहां चिराग जलाएँ, कहां गुलाब रखें 
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता"

चाहे गीता बांचिये या पढ़िये कोरान 
तेरा मेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान। 
लेके तनके नाप को घूमें बस्ती गाँव। 
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव। 
सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर 
जिस दिन सोये देर तक भूखा रहे फकीर। 

मेरी आवाज़ाही पर्दा है मेरे चेहरे का 
मैं हूँ ख़ामोश जहाँ मुझको वहाँ से सुनिये। 

मन वैरागी, तन अनुरागी, क़दम-क़दम दुश्वारी है 
जीवन जीना सरल न जानो बहुत बड़ी फ़नकारी है। 
औरों जैसे होकर भी हम बाइज़्ज़त हैं बस्ती में 
कुछ लोगों का सीधापन है कुछ अपनी अय्यारी है। 

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो। 
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो। 
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं 
तुम अपने आपको ख़़ुद ही बदल सको तो चलो। 


हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी। 
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी।। 
ज़िन्दगी का मुकद्दर सफर दर सफर 
आख़िरी सांस तक बेक़रार आदमी।।

हर आदमी में होते हैं, दस बीस आदमी। 
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।। 
 
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें 
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए


उठ के कपड़े बदल, घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआ। 
रात के बाद दिन, आज के बाद कल जो हुआ सो हुआ। 


"छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार 
आँखों भर आकाश है बाँहों भर संसार।" 

"सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास 
पाना खोना खोजना सांसों का इतिहास।"

गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला 
चिड़ियों को दाने, बच्चों को गुड़धानी दे मौला। 

फिर रोशन कर ज़हर का प्याला चमका नयी सलीबें 
झूठों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला।

ख़ून से तर-ब-तर कर के हर रहगुज़र थक चुके जानवर 
लकड़ियों की तरह फिर से चूल्हे में जल जो हुआ सो हुआ 
जो मरा क्यूँ मरा जो लुटा क्यूँ लुटा जो जला क्यूँ जला 
मुद्दतों से हैं गुम इन सवालों के हल जो हुआ सो हुआ 

गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया 
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया 

इक इश्क़ नाम का जो परिंदा ख़ला में था 
उतरा जो शहर में तो दुकानों में बट गया 

पहले तलाशा खेत फिर दरिया की खोज की 
बाक़ी का वक़्त गेहूँ के दानों में बट गया 

जब तक था आसमान में सूरज सभी का था 
फिर यूँ हुआ वो चंद मकानों में बट गया 

हैं ताक में शिकारी निशाना हैं बस्तियाँ 
आलम तमाम चंद मचानों में बट गया 

ख़बरों ने की मुसव्वरी ख़बरें ग़ज़ल बनीं 
ज़िंदा लहू तो तीर कमानों में बट गया 


मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है

चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है

तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है
 

मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है


तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी
न वो सख़ी न तुझे माँगने की आदत है
 
विसाल में भी वो ही है फ़िराक़ का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है
 
ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर उसे सोचने की आदत है
 
ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है

कुछ खुशी दे देना

कुछ खुशी दे देना

ज़रूरत हो अगर चार दियों की
तो चौबीस खरीद लेना
कुछ अपने लिए रख लेना
कुछ उस गरीब को दे देना

जो बैठा होगा ये आस लगाए
कि शायद उसके घर में भी रौशनी हो जाए
पकवानों का स्वाद शायद उसे भी मिल जाए
इस बार तुम भी उसे कुछ खुशी तोहफे में देना

वो रुई बेचने वाली दादी से
ज़रा ज्यादा रुई खरीद लेना
आपकी इस खरीद से मिली खुशी
उसके चेहरे पर पढ़ लेना

वो मिट्टी के ग्वाले बेचने वाली लड़की से
थोड़े और खिलौने खरीद लेना
उसकी आंखों के उन आंसुओं को
तुम बहने से रोक लेना

हम अपनी खुशियों का तो
पूरा खयाल रखते हैं
बस इस बार कुछ उदास चेहरों पर भी
खुशियों की रौशनी कर देना

सच कहती हूं कि मदद करने में
जो सुखद अनुभूति होती है
वो दुनिया की किसी चीज़ में नहीं होती
झूठ लगे मेरी बात, तो आजमा कर देख लेना।।

मुहब्बतों को नफरतों मे बदल दिया तुमने

मुहब्बतों को नफरतों मे बदल दिया तुमने
फिर इंसानियत का चेहरा कुचल दिया तुमने

हिंदू को मुसलमान से जब जब लड़ाना चाहा
होशियारी से दांव धर्म का चल दिया तुमने

जब भी आईना बन जाने को हुआ ये दिल
हर बार कोई रंग जफा का मल दिया तुमने

अब जो देने आए हो उसकी बात करो आज
हम भुला चुके हैं उसको जो कल दिया तुमने

हमने क्या पूछा था मुहब्बत मे तुमसे और
सवाल का हमारे ये क्या हल दिया तुमने

Friday, November 13, 2020

हमें अदाएँ दिवाली की ज़ोर भाती हैं ।

हमें अदाएँ दिवाली की ज़ोर भाती हैं ।
कि लाखों झमकें हरएक घर में जगमगाती हैं ।।
चिराग जलते हैं और लौएँ झिलमिलाती हैं ।
मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।1।।
 

गुलाबी बर्फ़ियों के मुँह चमकते-फिरते हैं ।
जलेबियों के भी पहिए ढुलकते-फिरते हैं ।।
हर एक दाँत से पेड़े अटकते-फिरते हैं ।
इमरती उछले हैं लड्डू ढुलकते-फिरते हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।2।।
 

मिठाइयों के भरे थाल सब इकट्ठे हैं ।
तो उन पै क्या ही ख़रीदारों के झपट्टे हैं ।।
नबात[1], सेव, शकरकन्द, मिश्री गट्टे हैं ।
तिलंगी नंगी है गट्टों के चट्टे-बट्टे हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।3।।
 
जो बालूशाही भी तकिया लगाए बैठे हैं ।
तो लौंज खजले यही मसनद लगाते बैठे हैं ।।
इलायची दाने भी मोती लगाए बैठे हैं ।
तिल अपनी रेबड़ी में ही समाए बैठे हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।4।।
 
उठाते थाल में गर्दन हैं बैठे मोहन भोग ।
यह लेने वाले को देते हैं दम में सौ-सौ भोग ।।
मगध का मूंग के लड्डू से बन रहा संजोग ।
दुकां-दुकां पे तमाशे यह देखते हैं लोग ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।5।।
 
दुकां सब में जो कमतर है और लंडूरी है ।
तो आज उसमें भी पकती कचौरी-पूरी है ।।
कोई जली कोई साबित कोई अधूरी है ।
कचौरी कच्ची है पूरी की बात पूरी है ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।6।।
 
कोई खिलौनों की सूरत को देख हँसता है ।
कोई बताशों और चिड़ों के ढेर कसता है ।।
बेचने वाले पुकारे हैं लो जी सस्ता है ।
तमाम खीलों बताशों का मीना बरसता है ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।7।।
 
और चिरागों की दुहरी बँध रही कतारें हैं ।
और हरसू कुमकुमे कन्दीले रंग मारे हैं ।।
हुजूम, भीड़ झमक, शोरोगुल पुकारे हैं ।
अजब मज़ा है, अजब सैर है अजब बहारें हैं ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।8।।
 
अटारी, छज्जे दरो बाम पर बहाली है ।
दिबाल एक नहीं लीपने से खाली है ।।
जिधर को देखो उधर रोशनी उजाली है ।
गरज़ में क्या कहूँ ईंट-ईंट पर दिवाली है ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।9।।
 
जो गुलाबरू हैं सो हैं उनके हाथ में छड़ियाँ ।
निगाहें आशिकों की हार हो गले पड़ियाँ ।।
झमक-झमक की दिखावट से अँखड़ियाँ लड़ियाँ ।
इधर चिराग उधर छूटती हैं फुलझड़ियाँ ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।10।।
 
क़लम कुम्हार की क्या-क्या हुनर जताती है ।
कि हर तरह के खिलौने नए दिखाती है ।।
चूहा अटेरे है चर्खा चूही चलाती है ।
गिलहरी तो नव रुई पोइयाँ बनाती हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।11।।
 
कबूतरों को देखो तो गुट गुटाते हैं ।
टटीरी बोले है और हँस मोती खाते हैं ।।
हिरन उछले हैं, चीते लपक दिखाते हैं ।
भड़कते हाथी हैं और घोड़े हिनहिनाते हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।12।।
 
किसी के कान्धे ऊपर गुजरियों का जोड़ा है ।
किसी के हाथ में हाथी बग़ल में घोड़ा है ।।
किसी ने शेर की गर्दन को धर मरोड़ा है ।
अजब दिवाली ने यारो यह लटका जोड़ा है ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।13।।
 
धरे हैं तोते अजब रंग के दुकान-दुकान ।
गोया दरख़्त से ही उड़कर हैं बैठे आन ।।
मुसलमां कहते हैं ‘‘हक़ अल्लाह’’ बोलो मिट्ठू जान ।
हनूद कहते हैं पढ़ें जी श्री भगवान ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।14।।
 
कहीं तो कौड़ियों पैसों की खनख़नाहट है ।
कहीं हनुमान पवन वीर की मनावट है ।।
कहीं कढ़ाइयों में घी की छनछनाहट है ।
अजब मज़े की चखावट है और खिलावट है ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।15।।
 
‘नज़ीर’ इतनी जो अब सैर है अहा हा हा ।
फ़क़त दिवाली की सब सैर है अहा हा ! हा ।।
निषात ऐशो तरब सैर है अहा हा हा ।
जिधर को देखो अज़ब सैर है अहा हा हा ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।16।। 

- नज़ीर अकबराबादी 

मीराबाई की पदावली


1. शबरी प्रसंग
अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी।
ऎसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती।
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण।
उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऎसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी।
हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी।
दास मीरां तरै सोई, ऎसी प्रीति करै जोइ।
पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।
 

2.
अजब सलुनी प्यारी मृगया नैनों। तें मोहन वश कीधो रे॥ध्रु०॥
गोकुळ मां सौ बात करेरे बाला कां न कुबजे वश लीधो रे॥१॥
मनको सो करी ते लाल अंबाडी अंकुशे वश कीधो रे॥२॥
लवींग सोपारी ने पानना बीदला राधांसु रारुयो कीनो रे॥३॥
मीरां कहे प्रभु गिरिधर नागर चरणकमल चित्त दीनो रे॥४॥
 

3.
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
 
4.
अब तो निभायाँ सरेगी, बांह गहेकी लाज।
समरथ सरण तुम्हारी सइयां, सरब सुधारण काज॥

भवसागर संसार अपरबल, जामें तुम हो झयाज।
निरधारां आधार जगत गुरु तुम बिन होय अकाज॥

जुग जुग भीर हरी भगतन की, दीनी मोच्छ समाज।
मीरां सरण गही चरणन की, लाज रखो महाराज॥
 
5.
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
सतं देख दौड आई, जगत देख रोई।
प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥
 
6.
अब तौ हरी नाम लौ लागी।
सब जगको यह माखनचोरा, नाम धर्यो बैरागीं॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी।
मूड़ मुड़ाइ डोरि कटि बांधी, माथे मोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन-कारन, बांधे जाके पांव।
स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चैतन्य जाको नांव॥
पीतांबर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बसै॥ 
 
7.
बंसीवारा आज्यो म्हारे देस। सांवरी सुरत वारी बेस।।
ॐ-ॐ कर गया जी, कर गया कौल अनेक।
गिणता-गिणता घस गई म्हारी आंगलिया री रेख।।
मैं बैरागिण आदिकी जी थांरे म्हारे कदको सनेस।
बिन पाणी बिन साबुण जी, होय गई धोय सफेद।।
जोगण होय जंगल सब हेरूं छोड़ा ना कुछ सैस।
तेरी सुरत के कारणे जी म्हे धर लिया भगवां भेस।।
मोर-मुकुट पीताम्बर सोहै घूंघरवाला केस।
मीरा के प्रभु गिरधर मिलियां दूनो बढ़ै सनेस।।
 
8.
अरज करे छे मीरा रोकडी। उभी उभी अरज॥ध्रु०॥
माणिगर स्वामी मारे मंदिर पाधारो सेवा करूं दिनरातडी॥१॥
फूलनारे तुरा ने फूलनारे गजरे फूलना ते हार फूल पांखडी॥२॥
फूलनी ते गादी रे फूलना तकीया फूलनी ते पाथरी पीछोडी॥३॥
पय पक्कानु मीठाई न मेवा सेवैया न सुंदर दहीडी॥४॥
लवींग सोपारी ने ऐलची तजवाला काथा चुनानी पानबीडी॥५॥
सेज बिछावूं ने पासा मंगावूं रमवा आवो तो जाय रातडी॥६॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तमने जोतमां ठरे आखडी॥७॥
 
9.
आई ती ते भिस्ती जनी जगत देखके रोई।
मातापिता भाईबंद सात नही कोई।
मेरो मन रामनाम दुजा नही कोई॥ध्रु०॥
साधु संग बैठे लोक लाज खोई। अब तो बात फैल गई।
जानत है सब कोई॥१॥
आवचन जल छीक छीक प्रेम बोल भई। अब तो मै फल भई।
आमरूत फल भई॥२॥
शंख चक्र गदा पद्म गला। बैजयंती माल सोई।
मीरा कहे नीर लागो होनियोसी हो भई॥३॥ 
 
10.
आओ मनमोहना जी जोऊं थांरी बाट।
खान पान मोहि नैक न भावै नैणन लगे कपाट॥

तुम आयां बिन सुख नहिं मेरे दिल में बहोत उचाट।
मीरा कहै मैं बई रावरी, छांड़ो नाहिं निराट॥

आओ सहेल्हां रली करां है पर घर गवण निवारि॥

झूठा माणिक मोतिया री झूठी जगमग जोति।
झूठा आभूषण री, सांची पियाजी री प्रीति॥

झूठा पाट पटंबरा रे, झूठा दिखडणी चीर।
सांची पियाजी री गूदड़ी, जामें निरमल रहे सरीर॥

छपन भोग बुहाय देहे इण भोगन में दाग।
लूण अलूणो ही भलो है अपणे पियाजीरो साग॥

देखि बिराणे निवांणकूं है क्यूं उपजावे खीज।
कालर अपणो ही भलो है, जामें निपजै चीज॥

छैल बिराणो लाखको है अपणे काज न होय।
ताके संग सीधारतां है भला न कहसी कोय॥

बर हीणो अपणो भलो है कोढी कुष्टी कोय।
जाके संग सीधारतां है भला कहै सब लोय॥

अबिनासीसूं बालबा हे जिनसूं सांची प्रीत।
मीरा कूं प्रभुजी मिल्या है ए ही भगतिकी रीत॥

त्राण- 1. किसी को संकट से मुक्त करने की क्रिया 2. रक्षा; बचाव; परित्राण; हिफ़ाजत 3. भय या चिंता के कारण का निवारण; मुक्ति; राहत 4. जीवन रक्षा 5. बचाव का साधन या उपाय; वह चीज़ जिससे रक्षा हो, जैसे- शिरस्त्राण 6. शरण; आश्रय; सहायता 7. त्रायमाणा नामक लता 8. बख़्तर; कवच, जिसकी रक्षा की गई हो। 

हो रही है साँझ बेला

हो रही है साँझ बेला
चल रहा पथिक अकेला
भोर के जो साथी थे
अब न उनके साथ थे ।
ज्यों ज्यों सूर्य ढल रहा
तिमिर प्रतिपल बढ़ रहा
चेतन अचेतन में
धीरे धीरे बदल रहा ।
शनैः शनैः बिलुप्त होते
सड़क किनारे जो रौनक थी
पास न कोई आ रहा था
तिमिर प्रतिपल बढ़ रहा ।
मैं वाला अहंकार भी अब
धीरे धीरे मर रहा
वासना भी साधना में
धीरे धीरे बदल रहा ।
रवि का अवसान था पर
चंद्र अब निकल रहा
छटपट करती तपीस में
अब शीतलता चहक रहा ।
तरुणाई की अंतिम बेला
संग न कोई संगी मेला
हो रही है साँझ बेला
चल रहा पथिक अकेला ॥

Thursday, November 12, 2020

पक्षी, चिड़िया शायरी

चहचहाती चंद चिड़ियों का बसर था पेड़ पर
मेरे घर इक पेड़ था और एक घर था पेड़ पर
- सज्जाद बलूच

खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से
रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया
- निदा फ़ाज़ली

शायद अब मौसम के पंछी आएँ तो चहकार उड़े
चिड़ियों के घर जब से उजड़े पेड़ों पर सन्नाटा है
- मरग़ूब अली


कल रात जो ईंधन के लिए कट के गिरा है
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शजर से
- परवीन शाकिर

अस्बाब यही है यही सामान हमारा
चिड़ियों से महकता रहे दालान हमारा
- इक़बाल पयाम

अब तो चुप-चाप शाम आती है
पहले चिड़ियों के शोर होते थे
- मोहम्मद अल्वी


उड़ जाता था रूप बदल कर चिड़ियों के
जंगल सहरा दरिया देखा करता था
- आलम ख़ुर्शीद

शायद किसी बला का था साया दरख़्त पर
चिड़ियों ने रात शोर मचाया दरख़्त पर
- अब्बास ताबिश

सूखी टहनी तन्हा चिड़िया फीका चाँद
आँखों के सहरा में एक नमी का चाँद
- जावेद अख़्तर

वो जाता रहा और मैं कुछ बोल न पाया
चिड़ियों ने मगर शोर सा दीवार पे खींचा
- अहमद फ़क़ीह

मैं इसी शहर में आँसू लिए फिरता हूँ जहाँ
पेड़ चिड़ियों की मुनाजात पे शक करते हैं
- जब्बार वासिफ़

चिड़ियों सी चहचहाएँ पनघट पे जब भी सखियाँ
चुप-चाप रो दिया है कोरे घड़े का पानी
- असलम कोलसरी

गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने बच्चों को गुड़-धानी दे मौला
- निदा फ़ाज़ली

'जान' फिर कर के किसी रोज़ ये उड़ जाएँगी
बेटियाँ बाप के आँगन में हैं चिड़ियों की तरह
- जान काश्मीरी

मैं चिड़ियों को उलझते देख कर लड़ता समझता हूँ
मगर सच्चाई क्या है ये उन्हीं से पूछना होगा
- फ़ज़्ल ताबिश

शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
घर में ये चिड़ियों की चहकारें कहाँ से आ गईं
- ज़फ़र गोरखपुरी

जामुन की इक शाख़ पे बैठी इक चिड़िया

जामुन की इक शाख़ पे बैठी इक चिड़िया 
हरे हरे पत्तों में छप कर गाती है 
नन्हे नन्हे तीर चलाए जाती है 
और फिर अपने आप ही कुछ उकताई सी 
चूँ चूँ करती पर तोले उड़ जाती है 


धुँदला धुँदला दाग़ सा बनती जाती है 
मैं अपने आँगन में खोया खोया सा 
आहिस्ता आहिस्ता घुलता जाता हूँ 
किसी परिंदे के पर सा लहराता हूँ 
दूर गगन की उजयाली पेशानी पर 
धुँदला धुँदला दाग़ सा बनता जाता हूँ 

Wednesday, November 11, 2020

हार जीत शायरी

इसी होनी को तो क़िस्मत का लिखा कहते हैं
जीतने का जहाँ मौक़ा था वहीं मात हुई
- मंज़र भोपाली

हार को जीत के इम्कान से बाँधे हुए रख
अपनी मुश्किल किसी आसान से बाँधे हुए रख
- अज़लान शाह

जीत की और न हार की ज़िद है
दिल को शायद क़रार की ज़िद है
- अलीना इतरत

मिलों के शहर में घटता हुआ दिन सोचता होगा
धुएँ को जीतने वालों का सूरज दूसरा होगा
- फ़ज़्ल ताबिश

मैं तो बाज़ी हार कर बे-फ़िक्र हो कर चल दिया
जीतने वालों को चसका लग गया अच्छा नहीं
- वफ़ा सिद्दीक़ी

सब जीतने की ज़िद पे यहाँ हारने लगे
सदियों से कोई शख़्स सिकंदर नहीं हुआ
- वफ़ा नक़वी

उलझनें इतनी थीं मंज़र और पस-मंज़र के बीच
रह गई सारी मसाफ़त मील के पत्थर के बीच
- हुसैन ताज रिज़वी

वो इस कमाल से खेला था इश्क़ की बाज़ी
मैं अपनी फ़तह समझता था मात होने तक
- ताजदार आदिल

हाथ आई हुई बाज़ी पे बहुत नाज़ न कर
जीतने वाले तुझे मात भी हो सकती है
- मासूम अंसारी

सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवक़ूफ़
सारे सिपाही मोम के थे घुल के आ गए
- राहत इंदौरी

जीतने का न कोई शौक़ न तौफ़ीक़ हमें
लेकिन इस तरह तो हारे भी नहीं जा सकते
- फ़रहत एहसास

मैं क़त्ल हो के ज़माने में सरफ़राज़ रहा
कि मेरी जीत का पहलू भी मेरी हार में था
- गुहर खैराबादी

हमेशा ये ही तो होता रहा है मेरे अज़ीज़
किसी की जीत तो कोई किसी से हार गया
- नज़ीर मेरठी

जुगनुओं ने फिर अँधेरों से लड़ाई जीत ली
चाँद सूरज घर के रौशन-दान में रक्खे रहे
- राहत इंदौरी

मैदाँ में हार जीत का यूँ फ़ैसला हुआ
दुनिया थी उन के साथ हमारा ख़ुदा हुआ
- जमील मलिक

जीत और हार का इम्कान कहाँ देखते हैं 
गाँव के लोग हैं नुक़सान कहाँ देखते हैं 
-राना आमिर लियाक़त

हम हार गए तुम जीत गए हम ने खोया तुम ने पाया 
इन छोटी छोटी बातों का हम कोई ख़याल नहीं करते 
-वाली आसी

उल्फ़त में हार जीत का लगता नहीं पता
वो शर्त जो लगी भी नहीं थी लगी रही
- सौलत ज़ैदी

मैं रात पुरानी लाता हूँ तुम बात पुरानी लाओ ना

मैं रात पुरानी लाता हूँ
तुम बात पुरानी लाओ ना
हाँ में छोटा बन जाता हूँ
अब तो वापस आओ ना

मैं यादों के चंगुल में फंस गया हूँ
इनसे मुझे बचाओ ना
मैं देर रात तक रोता हूँ
आकर मुझे हँसाओ ना

मैं रात पुरानी लाता हूँ
तुम बात पुरानी लाओ ना

मैं ख़ुद से चलकर आऊंगा
बस एक कॉल लगाओ ना
मुझे तुमसे लिपटकर रोना है
एक बार गले लगाओ ना

मैं तेरी सांसे बनना चाहता हूँ
तुम मेरी रूह बन जाओ ना
मुझे लम्बी बातें करनी हैं
कब फुरसत से हो बताओ ना

मैं रात पुरानी लाता हूँ
तुम बात पुरानी लाओ ना

मैं तुम पर लिखना चाहता हूँ
मेरी कहानी बन जाओ ना
मैं तुमसे इतना प्यार करूँ
मेरी रानी बन जाओ ना

मैं देर रात में सोता हूँ
मुझको डाँट लगाओ ना
मैं सुबह लेट हो जाता हूँ
पहले की तरह जगाओ ना

मैं रात पुरानी लाता हूँ
तुम बात पुरानी लाओ ना

Monday, November 9, 2020

दहलीज़ पर आ रूकी है हवा-ए-मोहब्बत

मेरी दहलीज़ पर आ रूकी है हवा-ए-मोहब्बत..साहिब...!
मेहमान नवाज़ी का शौक भी है, उजड़ जाने का खौफ़ भी... !!

कैसे तुमको जाने दूं मैं

एक मुद्दत के बाद मिली हो
कैसे तुमको जाने दूं मैं
अभी तो बातें शुरू हुई हैं
कैसे तुमको जाने दूं मैं।

पहली बार तुम्हे देखा था
सावन के सुहाने मौसम में
रिमझिम बारिश थी उस दिन
कैसे तुमको जाने दूं मैं।

कुछ बात अलग थी तुममें प्रिय
जब तुम मुसकाया करती थी
मन ही मन में चाहा तुमको
कैसे तुमको जाने दूं मैं।

वक्त का पहिया बढ़ते बढ़ते
इस मोड़ पर आकर ठहरा है
तुम हो मैं हूं हम हैं दोनों
कैसे तुमको जाने दूं मैं।

पहली बार मुझे जीवन में
साथ तुम्हारा मिला है मुझको
हाथों में हाथ आया है जबसे
कैसे तुमको जाने दूं मैं।

Sunday, November 8, 2020

उनकी याद हमें आती है - गोपालदास "नीरज"

मधुपुर के घनश्याम अगर कुछ पूछें हाल दुखी गोकुल का
उनसे कहना पथिक कि अब तक उनकी याद हमें आती है।

बालापन की प्रीति भुलाकर
वे तो हुए महल के वासी,
जपते उनका नाम यहाँ हम
यौवन में बनकर संन्यासी
सावन बिना मल्लार बीतता, फागुन बिना फाग कट जाता,
जो भी रितु आती है बृज में वह बस आँसू ही लाती है।
मधुपुर के घनश्याम...
 

बिना दिये की दीवट जैसा
सूना लगे डगर का मेला,
सुलगे जैसे गीली लकड़ी
सुलगे प्राण साँझ की बेला,
धूप न भाए छाँह न भाए, हँसी-खुशी कुछ नहीं सुहाए,
अर्थी जैसे गुज़रे पथ से ऐसे आयु कटी जाती है।
मधुपुर के घनश्याम...


पछुआ बन लौटी पुरवाई,
टिहू-टिहू कर उठी टिटहरी,
पर न सिराई तनिक हमारे,
जीवन की जलती दोपहरी,
घर बैठूँ तो चैन न आए, बाहर जाऊँ भीड़ सताए,
इतना रोग बढ़ा है ऊधो ! कोई दवा न लग पाती है।
मधुपुर के घनश्याम...
 
लुट जाए बारात कि जैसे...
लुटी-लुटी है हर अभिलाषा,
थका-थका तन, बुझा-बुझा मन,
मरुथल बीच पथिक ज्यों प्यासा,
दिन कटता दुर्गम पहाड़-सा जनम कैद-सी रात गुज़रती,
जीवन वहाँ रुका है आते जहाँ ख़ुशी हर शरमाती है।
मधुपुर के घनश्याम...
 
क़लम तोड़ते बचपन बीता,
पाती लिखते गई जवानी,
लेकिन पूरी हुई न अब तक,
दो आखर की प्रेम-कहानी,
और न बिसराओ-तरसाओ, जो भी हो उत्तर भिजवाओ,
स्याही की हर बूँद कि अब शोणित की बूँद बनी जाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

-गोपालदास "नीरज"

मल्लार- वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला एक राग; मलार।

तुम आज भी पास नहीं

सुनो ज़रा
बात एक पल
या
उस पल की नहीं
वह वक़्त भी शानदार था
ये भी ख़ास है
मुझे परवाह नहीं
किसी बात की
फिर भी कह रहा हूं मैं...
तुम कल भी दूर थी
तुम आज भी पास नहीं

सोंधी मिट्टी मुझे बूलाती हैं

ये भीगी सोंधी मिटि मूझे बूलाती हैं जाऊ क्या
जो तूम्हे खुशि मिले तो मैं जीतेजी मर जाऊ क्या

तुम हर बात पर कहति थी जा कई पानी में डूब मरो
अब हो इजाज़त तो मैं फरिश्ता बनकर उड जाऊ क्या

तेरा चाँद बनना मेरी किसमत में नहि तो ना सही
जो कह दे तू तो इस नभ में एक तारा बन जाऊ क्या

Friday, November 6, 2020

उनकी याद तिर रही है

उनकी याद तिर रही है
मन व उर को चिर रही है
उनकी याद तिर रही है
देह तन को झल रही है
बहुत याद तिर रही है
रात भर रहती जगाती
हाॅय ! ये कैसी घड़ी है
जो उर में आग लगी है
अब वो सब नीरस पड़ा है
जिसका रस था मधुमयी
उनकी याद आ रही है
जो कि सारे छूट गये थे
बिन वजह ही रूठ गये थे
हवा छर-छर बह रही है
पत्ते झर-झर चल रहे है
वन ये सारा मौन पड़ा है
जैसे वर्षा में पिक खड़ा
एक पंछी बोल रहा है
घाव उर के खोलता है
हाॅय ! मैं कितना अभागा
व्योम से टूटा सितारा
उनकी मुझसे दूरी है जो
वो जो खुशी के पुर है जो
दृश्य उसके बाद का रे
उन सभी के याद का रे
उनकी याद तिर रही है
मन प्रीत को घिर रही है
उनकी याद तिर रही है
मन ही मन में चीर रही है
बहुत याद तिर रही है
वे नजर में तिर रहे है ।

प्रेम की परिभाषा - रसखान

प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥

कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥

काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥ 
बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥

अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥
 
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥

भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥
 
दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान।
इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥

प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥
 
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥

मधुर वाणी

लफ़्जों के हैं जायके हजार
स्वादिष्ट परोषी बातों में
चख लिए जाये है कई बार
जो बोले तीखे बोल
तो सम्बंधों में
तीखापन बसर जाता है
कभी गर्म मिजाज
की गरमाहट
झगड़ें या आँसूओं को
छिप छिप पनाह देती हैं
कभी शिकायतें
प्यार में नाराजगी का
कारण हो जाती हैं
और जिन्दगी
नमक हो जाती है
असर, प्यार के रिश्तों की
कुछ चमकती ,
चमक खो जाती है
मधुरवाणी का
अपना एक किरदार है
हर मीठा पहलू
इसका हिस्सेदार है
दुश्मन भी दोस्त बन जाए
जब मुख से फूल झड़ जाए
जब बोले मधुरवाणी
गुस्सा होता पानी पानी
जीवन में करे हमेशा,
सही शब्दों का अर्पण
मधुरवाणी ही है
श्रेष्ठ व्यक्तित्व का दर्पण
समबन्धों में ,
माधुर्य की प्यास रहती है
मधुरवाणी से ही ,
जीवन में मिठास रहती है

तुमसे जब कोई जुदा हो जायेगा

तुमसे जब कोई जुदा हो जायेगा
मेरा ग़म तुमको पता हो जाएगा

दूर ही लगते शिवाले रिन्द को
पास लेकिन मयक़दा हो जायेगा

क्यूँ हुए नाराज़ खोलो राज़ ये
वर्ना झगड़ा फिर खड़ा हो जायेगा

सब समझ लेंगे सफ़र की मुश्किलें
जब नुमाया आबला हो जायेगा

गर डिनर के बाद कुछ पैदल चलें
यूँ हज़म खाना सदा हो जायेगा

हर दवा खाने से पहले बैठकर
कर दुआ भी फ़ायदा हो जायेगा

काम करना है सलीके से मगर
जब कहोगे मशविरा हो जायेगा

हारकर 'दोस्त' खोया जब नहीं
जीतकर क्या फ़ायदा हो जायेगा

Thursday, November 5, 2020

मैं शुक्रगुजार हूँ

मैं शुक्रगुजार हूँ, उन तमाम लोगों का
जो जिन्दगी का सबसे ज्यादा मजाक उड़ाते हैं,
जो जुल्म और अत्याचार करते हैं,
जो भावनाओं में जीकर
इंसान होते हुए भी पाश्विकता का प्रमाण देते हैं,
जो दिन-रात मानवता का कत्ल करते हैं,
हर पवित्र और पूज्य वस्तु का तिरस्कार करते हैं,
जो सिर्फ बुराईयों का साथ देते हैं|
क्योंकि यही वो लोग हैं,
जो जीवन को दिशा देते हैं,
और अच्छे कार्यों का श्री गणेश कर्ता बनते हैं|
यही वो लोग हैं
जो महान लोगों के जन्म का कारण बनते हैं,
और सुव्यवस्था की तरफ ध्यान खींचते हैं|
यही वो लोग हैं
जो मानवता को परिभाषित करते हैं,
एवं जंगली साम्राज्य से इंसानी साम्राज्य की शुरुआत करते हैं|

Wednesday, November 4, 2020

तेरा आना और आते ही

तेरा आना और आते ही
पलटकर फिर चले जाना
कोई खता हुई मुझसे
इशारा इस ओर करता था,

कभी चुप मैं भी होता था
कभी खामोश तुम भी होती थीं
ये नींद के झोंके हमें
बदनाम करते थे,

बुलाकर पास तुमने जब
आगोश में लिया मुझे अपने
दो मीठे प्यार के बोलों ने
हम दोनों को सुला डाला,

अपनी नींद का आलम
ना पूछिए हमसे
चुम्बन प्यार का लेने से पहले ही
रूठकर तुम चले गए,

बजाकर दिल के तारों को
पुकारा किया बहुदा
हुनर नींद से जगाने का
अभी तलक सीख नहीं पाया। 

Tuesday, November 3, 2020

मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है

ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं 
मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है 

कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना


अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास 
कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना

आँखों को देखने का सलीक़ा जब आ गया

जो ज़ेहन-ओ-दिल के ज़हरीले बहुत हैं
वही बातों के भी मीठे बहुत हैं
- अख़तर शाहजहाँपुरी

मैं तो ज़हरीले साँपों को अब भी दूध पिलाता हूँ
ये मेरी फ़ितरत है 'अख़्तर' या मेरी नादानी है
- अख़्तर अब्दुर्रशीद

नफ़रतों की नई दीवार उठाते हुए लोग
क्या अजब लोग हैं ज़िंदान बनाते हुए लोग
एहतिमाम सादिक़

तेरे ख़त आज लतीफ़ों की तरह लगते हैं
ख़ूब हँसता हूँ जहाँ लफ़्ज-ए-वफ़ा आता है
- ज़ुबैर अली ताबिश

अपने ज़हरीले दाँत गाड़ ने के लिए
जब वो फनफना कर बाहर आते हैं
- परवेज़ शहरयार

औरों पर इल्ज़ाम-तराशी फ़ितरत है हम लोगों की
सच पूछो तो पाल रखे हैं हम ने ख़ुद ज़हरीले नाग
- शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी

आँखों को देखने का सलीक़ा जब आ गया
कितने नक़ाब चेहरा-ए-असरार से उठे
-अकबर हैदराबादी 

गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया 
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया 
- निदा फ़ाज़ली

है देखने वालों को संभलने का इशारा
 थोड़ी सी नक़ाब आज वो सरकाए हुए हैं
-अर्श मलसियानी

जो ज़ेहन-ओ-दिल के ज़हरीले बहुत हैं 
वही बातों के भी मीठे बहुत हैं
- अख़तर शाहजहाँपुरी

उन से बच कर चलना बाबा ये क़ातिल ज़हरीले हैं
सूरत के मोहन हैं भीतर से सब नीले पीले हैं
- अनवर साबरी

Monday, November 2, 2020

एक मां के ना होने से घर कितना सूना लगता है।

खुशी का भी आता मंज़र कितना सूना लगता है,
एक मां के ना होने से घर कितना सूना लगता है।

तुम चलकर देखो काम सभी हो जाते हैं लेकिन,
अफ़सर ना हो तो दफ़्तर कितना सूना लगता है।

ये यादें भी, तस्वीरें भी, सोच में मेरी सजी हुई हैं,
फिर भी ह्रदय का बिस्तर कितना सूना लगता है।

बेशक सारी दुनिया में, मानवता है कांपी-कांपी,
ये दिल में ना हो तो, डर कितना सूना लगता है।

चांद-सितारे, झूमे-झूमे, रोज़ सफ़र में हैं लेकिन,
मां बिछुड़ जाए तो अम्बर कितना सूना लगता है।

दौलत भी है, शौहरत भी है, सारी दुनियादारी है,
ये मगर मंज़िल का पत्थर कितना सूना लगता है।

मां के नरम हाथों का जो हाथ फिराना दूर हुआ,
मुझे मेरी रूह का अस्तर कितना सूना लगता है।

कल तक अपना था तो, सहरा भी आबाद लगा,
अब तन्हा गुलशन होकर कितना सूना लगता है।

ज़फ़र ढह गया है कल जो ऊंचे दरख़्त का साया,
इन बहारों का भी लश्कर कितना सूना लगता है।

लिख दूँ लेकिन क्या लिख दूँ

लिख दूँ लेकिन क्या लिख दूँ
फिर से चाँद पे कोई ग़ज़ल
या समाज में होता छल
एक उगता नया सवेरा
या दर्द भरा कोई कल
या लिख दूँ हजारों शायरियाँ
लोगों के किये एहसानों पर
या फिरा दूँ सारी कलम की स्याही
खुद के दर्द भरे पैमानों पर।।।

Sunday, November 1, 2020

देखा मैंने एक सुन्दर सा ख्वाब,

देखा मैंने एक सुन्दर सा ख्वाब,
न जाने कितनी कितनी बार।
कि आया है कोई जिंदगी में मेरी,
ले कर खुशियों की भरमार।
अचानक फिर आया कोई, एक
सुन्दर सा, अनदेखा अनजाना।
लगा मुझे, है वो कोई जाना पहचाना।
न जाने वो क्यों मेरे मन को है भा गया।
उसका दिल भी मुझे देख मुस्करा गया।
एक दूजे को पसंद कर, भर ली हमने हामी।
जैसे एक दूजे के दिल की धड़कनों
की आवाज़ है हमने जानी।
सबके आशीर्वाद से मेरी सगाई का
वो शुभ दिन है आने वाला।
सुन्दर सा वो ख्वाब मेरा अब
सच हो जाने वाला है।
वो दूल्हा बन रिति रिवाज से
मुझे लेने मेरे घर आने वाला है।
अग्नि के सात फेरौं ओर सात वचनों संग
अपना भी बन्धन पवित्र बंध जायेगा।
कल सब मिलकर हंसी-खुशी
गीत मधुर मिलन के गायेंगे।
पर डोली पर मेरी, मम्मी पापा,
भाई बहन और सखियों संग
सबकी अखियों में अंश्रू भर आयेंगे।
बड़े पापा ओर बड़ी मम्मा के आशीर्वाद
से फिर होगी मेरी विदाई।
खुशी-खुशी तारों की छाँव में,
फिर मेरी डोली भी पिया घर जायेगी।
ओर चावल उछाल बिन पलटे मेहदी
लगे कदमों से में भी विदा हो जाऊँगी।
ओर सच पूछो तो अपने बाबुल को
याद बहुत में आऊंगी।

सफर का हौसला था.

जिसे मंजिल समझ बैठे थे हम वो सिर्फ एक मरहला था
नज़र उठाकर देखा तो हमसे आगे भी सफ़र में एक काफिला था

दूर तक निगाह में रास्ते पसरे पड़े थे और जहाँ हम खड़े थे
उस जगह और मंजिल के दरमियाँ अभी मीलों का फासला था

हम जो मुतमइन हो आराम फरमा रहे थे अब खुद पर शरमा रहे थे
मगर जो लोग चले जा रहे थे उनमें अब भी सफर का हौसला था. 

कोई न कोई रास्ता निकलता है

हर रहगुज़र से मेरे पावों का कोई न कोई वास्ता निकलता है
मैं किसी जानिब कदम रखूं उसी जानिब कोई न कोई रास्ता निकलता है

हयात के सफ़र में ऐसी कोई मुश्किल नहीं जिसका कोई हल नहीं
कोशिश करने से हर मुसीबत का कोई न कोई रास्ता निकलता है

सब बेगाने निकले

जिनको अपना समझा दिल ने,
वह तो सब बेगाने निकले,
जब हमे ज़रूरत थी सबकी,
उस समय सभी अनजाने निकले,
करी मेहनत कुछ किया हासिल
तब जाकर सब अपनाने निकले,
फिर हमने अपने मन में ठाना कुछ,
लिख कर बोल हम गाने निकले,
सुन गाना जलन भरी जिनके दिल में,
धोखे की आग से वो हमको जलाने निकले,
गर जलना क्या था जब सोना हैं हम,
जलाने वाली आग से ही दमक कर निकले.

तेरा एहसास गर नहीं होता।

तेरा एहसास गर नहीं होता।
दामन इतना भी तर नहीं होता।।
तुम समझ लेते मेरी ख़ामोशी।
कोई शिकवा भी फिर नहीं होता।।
ख़ौफ खाते अगर गुनाहों से।
मौत का भी फिर डर नहीं होता।।
एक होती हमारी मंज़िल भी।
मुश्किल इतना सफ़र नहीं होता।।
तेरा एहसास गर नहीं होता।
दामन इतना भी तर नहीं होता।।