Sunday, December 27, 2020

उन का ख़याल हर तरफ़ उन का जमाल हर तरफ़

1. इधर से देखें तो अपना मकान लगता है


इक और ज़ाविए से आसमान लगता है
जो तुम हो पास तो कहता है मुझ को चीर के फेंक

वो दिल जो वक़्त-ए-दुआ बे-ज़बान लगता है
शुरू-ए-इश्क़ में सब ज़ुल्फ़ ओ ख़त से डरते हैं
अख़ीर उम्र में इन ही में ध्यान लगता है
सरकने लगती है तब ही क़दम तले से ज़मीन
जब अपने हाथ में सारा जहान लगता है
दो चार घाटियाँ इक दश्त कुछ नदी नाले
बस इस के ब'अद हमारा मकान लगता है 

2. उन का ख़याल हर तरफ़ उन का जमाल हर तरफ़
हैरत-ए-जल्वा रू-ब-रू दस्त-ए-सवाल हर तरफ़
मुझ से शिकस्ता-पा से है शहर की तेरे आबरू
छोड़ गए मिरे क़दम नक़्श-ए-कमाल हर तरफ़
हम हैं जवाँ भी पीर भी हम हैं अदम भी ज़ीस्त भी
हम हैं असीर-ए-हल्का-ए-क़ौल-ए-मुहाल हर तरफ़
नग़्मा गिरा है बूँद बूँद फिर भी उठी है कितनी गूँज
उड़ती फिरे है ज़ेहन में गर्द-ए-ख़याल हर तरफ़
क़लब-ए-हयात-ओ-मौत से मिल न सका कोई जवाब
फेंका किए हैं गरचे हम संग-ए-सवाल हर तरफ़ .

3. बनाएँगे नई दुनिया हम अपनी
तिरी दुनिया में अब रहना नहीं है .

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