हम भी तो तुझे, रोज़ नहीं मिलने वाले ।
क्यों नाराजगी जाहिर करें, किसी से भला,
कौन हमेशा के लिए, हम हैं ठहरने वाले।
चल कर लेते हैं, कुछ नादानियां हम भी ,
रोज कहाँ मिलेंगे, यूँ मरते हुए हँसने वाले ।
जख्म जो मिले वो, फूल बन जायेंगे ,
न मिलेंगे गुलिशतां में, यूँ महकने वाले।
ता'बीर ख़ुद 'दोस्त', लिखना जानती है ,
ख़्वाब उसके क्या, पढ़ेंगे पढ़ने वाले ।
कश्तियाँ उन्ही की, डूबती हैं 'दोस्त' ,
नहीं होते जो, तूफ़ां में संभलने वाले ।
No comments:
Post a Comment