बिछड़ के उन से सलीक़ा न ज़िंदगी का रहा
लबों से उड़ गया जुगनू की तरह नाम उस का
सहारा अब मिरे घर में न रौशनी का रहा
गुज़रने को तो हज़ारों ही क़ाफ़िले गुज़रे
ज़मीं पे नक़्श-ए-क़दम बस किसी किसी का रहा
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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