बेचैन है हवायें, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता किश्ती किधर चली है।
मजधार है, भंवर है या पास किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
‘‘न्यायोचित सुख सुलभ नहीं, जब तक मानव-मानव को।
चैन कहाँ धरती पर तब तक, शांति कहाँ इस भव को।
जब तक मनुज-मनुज का यह सुख भाग नहीं सम हेागा।
शमित न होगा कोलाहल संघर्ष नहीं कम होगा।
“ब्रम्हा से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है
अपना सुख उसने अपने
भुजबल से ही पाया है।”
‘‘क्रांति धात्रि कविते! जाग उठ, आडम्बर में आग लगा दें।
पतन, पाप, पाखण्ड जले, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दें।
उठ वीरों की भाव तरंगिणि, दलितों के दिल की चिनगारी।
युग मर्दित यौवन की ज्वाला, जाग जाग री क्रांति कुमारी।।’’
‘सामधेनी’ में दिनकर
कितनी द्रोपदियों के बाल खुले, किन-किन कलियों का अंत हुआ
कह हृदय खोल चित्तौर यहां, कितने दिन ज्वाल बसंत हुआ।
ले अंगड़ाई उठ हिले धरा, कर निज विराट स्वर में निनाद
शैल राट! हुँकार भरे, फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद, रे तपी! आज तप का न काल
नव युग शंखध्वनि, जगा रही, तू जाग। जाग मेरे विशाल
‘‘विद्युत की इस चकाचौंध में देख दीप की लो रोती है।
अरी हृदय को थाम महल के लिए झोपड़ी बलि होती हैं।
देख कलेजा फाड़ कृषक, दे रहे हृदय शोणित की धारें
बनती ही उन पर जाती हैं वैभव की ऊँची दीवारें।’’
एक मनुज संचित करता है अर्थ पाप के बल से
और भोगता उसे दूसरा भाग्यवाद के छल से।
"भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला
भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल
पर, भटक रहा है सारा देश अंधेरे में।।
चल रहे ग्राम कुंजों में पछुआ के झकोर
दिल्ली, लेकिन ले रही लहर पुरवाई में
है विकल देश सारा अभाव के तापों से
दिल्ली सुख से सोई है नरम रजाई में।"
“धर्म का दीपक क्षमा का दीप कब जलेगा, कब जलेगा
विश्व में भगवान।”
“सारी दुनिया उजड़ चुकी है
उजड़ चुका है मेला
ऊपर है बीमार सूर्य नीचे मैं मनुज अकेला।”
प्रियतम को रख सके निमज्जित, जो अतृप्ति के रस में
पुरुष बड़े सुख से रहता है, उस प्रमदा के वश में।
‘कलम आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिनने चिनगारी
जो चढ़ गये पुष्प वेदी पर
लिये बिना गरदन का मोल।”
उसी तरह देशप्रेम की भावना से आप्लावित वे कुछ और झाकियाँ हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। जैसे-
देह प्रेम की जन्मभूमि है पर उसके विचरण की
सारी लीला भूमि नहीं सीमित है रुधिर त्वचा तक।
यह सीमा प्रसरित है मन के गहन, गुह्य लोकों में
जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आंका करती है
और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी मुख मण्डल में
किसी दिव्य, अव्यक्त कमल को नमस्कार करता है।
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