Tuesday, April 28, 2020

अहमद फ़राज़ की शायरी

दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है,
 जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे...

तड़प उठूं भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूं
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूं फिर भी तुझे दिखाई न दूं
तेरे बदन में धड़कने लगा हूं दिल की तरह

ये और बात के अब भी तुझे सुनाई न दूं
ख़ुद अपने आपको परखा तो ये नदामत है
के अब कभी उसे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दूं
मुझे भी ढूँढ कभी मह्व-ए-आईनादारी
मैं तेरा अक़्स हूँ लेकिन तुझे दिखाई न दूं
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला...
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अन्दाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला
अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मेरा
सख़्त नादिम है मुझे दाम में लानेवाला
सुबह-दम छोड़ गया निक़हते-गुल की सूरत
रात को ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला
क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे
वो जो इक शख़्स है मुंह फेर के जानेवाला
तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया
आज तन्हा हूं तो कोई नहीं आनेवाला
मुंतज़िर किसका हूं टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
कौन आयेगा यहाँ कौन है आनेवाला
मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीरबतानेवाला
क्या ख़बर थी जो मेरी जान में घुला है इतना
है वही मुझ को सर-ए-दार भी लाने वाला
तुम तक़ल्लुफ़ को भी इख़लास समझते हो "फ़राज़"
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला.
सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं...
सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चांद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आंखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियांसताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन संवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायें कतर के देखते हैं
वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
कहानियां हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएं
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं
जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं
रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं
तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं
ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं
यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं
न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं
यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं
अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं
बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं.
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते...
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते
शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते
कितना आसां था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते
जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते-गाते जाते
उसकी वो जाने, उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते.
साथ रोती थी मेरे साथ हंसा करती थी...
साथ रोती थी मेरे साथ हंसा करती थी
वो लड़की जो मेरे दिल में बसा करती थी
मेरी चाहत की तलबगार थी इस दर्जे की
वो मुसल्ले पे नमाज़ों में दुआ करती थी
एक लम्हे का बिछड़ना भी गिरां था उसको
रोते हुए मुझको ख़ुद से जुदा करती थी
मेरे दिल में रहा करती थी धड़कन बनकर
और साये की तरह साथ रहा करती थी
रोग दिल को लगा बैठी अंजाने में
मेरी आगोश में मरने की दुआ करती थी
बात क़िस्मत की है ‘फ़राज़’ जुदा हो गए हम
वरना वो तो मुझे तक़दीर कहा करती थी.
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
अहमद फ़राज के चंद फुटकर शेर:
-अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें.
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
-दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है
और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता.
-किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ.
-तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला
-ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे.
-आंख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा
-अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए.
-इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएं
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं.
-और 'फ़राज़' चाहिएं कितनी मोहब्बतें तुझे
माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया.
-अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएं हम
ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएं हम.
-बंदगी हम ने छोड़ दी है 'फ़राज़'
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएं.
-इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की.
-उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना
ऐ मिरी जान के दुश्मन तुझे अल्लाह रक्खे.

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