Saturday, April 25, 2020

कि अब तु न आयेगा

यूँ रात के इस पहर में
बारिश की ये दो बूँदें ही
काफ़ी थी ये जताने के लिए
कि अब तु न आयेगा

यूँ बाढ़ में घिरा छटपटाता
तृण को बहते देखना ही
काफ़ी है ये मानने के लिए
कि अब तु न आयेगा

यूँ गुमनाम सोचना तुझें
इस रात की कालिका में
काफ़ी है ये मानने के लिए
कि वो चाँद फिर भी आयेगा

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