Wednesday, April 29, 2020

इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या व अन्य गजल

इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे-आगे देखिये होता है क्या

क़ाफ़िले में सुबह के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्मे-ख़्वाहिशदिल में तू बोता है क्या
ये निशान-ऐ-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबसधोता है क्या
ग़ैरते-युसूफ़ है ये वक़्त ऐ अजीज़
'मीर' इस को रायेग़ाँ खोता है क्या
इब्तिदा-ऐ-इश्क: इश्क की शुरुआत
ग़ाफ़िल- अनभिज्ञ
तुख़्मे-ख़्वाहिश: इच्छाओं के बीज
अबस- बिन प्रयोजन
रायेग़ाँ- व्यर्थ
हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया...
हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हमने थाम-थाम लिया
ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मयख़ाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतक़ाम लिया
वो कज-रविश न मिला मुझसे रास्ते में कभू
न सीधी तरहा से उसने मेरा सलाम लिया
मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर'
प' मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम किया.
जो तू ही सनम हम से बेज़ार होगा...
जो तू ही सनम हम से बेज़ार होगा
तो जीना हमें अपना दुशवार होगा
ग़म-ए-हिज्र रखेगा बेताब दिल को
हमें कुढ़ते-कुढ़ते कुछ आज़ार होगा
जो अफ़्रात-ए-उल्फ़त है ऐसा तो आशिक़
कोई दिन में बरसों का बिमार होगा
उचटती मुलाक़ात कब तक रहेगी
कभू तो तह-ए-दिल से भी यार होगा
तुझे देख कर लग गया दिल न जाना
के इस संगदिल से हमें प्यार होगा.
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है.
-नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है.
-दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया.
-कोई तुम सा भी काश तुम को मिले
मुद्दआ हम को इंतिक़ाम से है.
-बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा
क़हर होता जो बा-वफ़ा होता.

No comments: