Thursday, May 29, 2025

तरस रही थीं ये आँखें किसी की सूरत को

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तरस रही थीं ये आँखें किसी की सूरत को

सो हम भी दश्त में आब-ए-रवाँ उठा लाए

सालिम सलीम

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फूल खिले हैं गुलशन गुलशन

लेकिन अपना अपना दामन

जिगर मुरादाबादी

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आँखें खुलीं तो जाग उठीं हसरतें तमाम

उस को भी खो दिया जिसे पाया था ख़्वाब में

सिराज लखनवी

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मुसीबत और लम्बी ज़िंदगानी

बुज़ुर्गों की दुआ ने मार डाला

मुज़्तर ख़ैराबादी

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