पारा-ए-दिल है वतन की सरजमी मुश्किल ये है,
शहर को वीरान या इस दिल को वीराना कहे।
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अब कारगह-ए-दहर में लगता है बहुत दिल,
ऐ दोस्त कहीं ये भी तिरा ग़म तो नहीं है.
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मेरे ही संग-ओ-ख़िश्त से तामीर-ए-बाम-ओ-दर,
मेरे ही घर को शहर में शामिल कहा न जाए.
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मुझे ये फिक्र सब की प्यास अपनी प्यास है,
साकी, तुझे ये जिद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से।
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सर पर हवा-ए-ज़ुल्म चले सौ जतन के साथ,
अपनी कुलाह कज है उसी बाॉँकपन के साथ.
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ज़बाँ हमारी न समझा यहाँ कोई,
हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे.
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रोक सकता हमें ज़िदान-ए-बला क्या 'मजरूह',
हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं.
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अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी हम पर,
अगर है तिश्रगी कामिल तो पैमाने भी आएँगे.
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बहाने और भीं होते जो ज़िंदगी के लिए,
हम एक बार तिरी आरजू भी खो देते.
-मजरूह सुल्तानपुरी
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