Tuesday, May 6, 2025

मिर्ज़ा ग़ालिब

कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़

पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले

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बाज़ीचा--अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे

होता है शब--रोज़ तमाशा मिरे आगे

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बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना

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क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ

रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन

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आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक

कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक

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इशरत--क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

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कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर--नीम-कश को

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

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काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'

शर्म तुम को मगर नहीं आती

 


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