कहाँ
मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब'
और कहाँ वाइज़
पर
इतना जानते हैं कल वो
जाता था कि हम
निकले
*
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है
दुनिया मिरे आगे
होता
है शब-ओ-रोज़
तमाशा मिरे आगे
*
बस-कि दुश्वार है
हर काम का आसाँ
होना
आदमी
को भी मुयस्सर नहीं
इंसाँ होना
*
क़र्ज़
की पीते थे मय
लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग
लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
*
आह
को चाहिए इक उम्र असर
होते तक
कौन
जीता है तिरी ज़ुल्फ़
के सर होते तक
*
इशरत-ए-क़तरा है
दरिया में फ़ना हो
जाना
दर्द
का हद से गुज़रना
है दवा हो जाना
*
कोई
मेरे दिल से पूछे
तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये
ख़लिश कहाँ से होती
जो जिगर के पार
होता
*
काबा
किस मुँह से जाओगे
'ग़ालिब'
शर्म
तुम को मगर नहीं
आती
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