Tuesday, May 6, 2025

माथे पे पसीना क्यूं आंखों में नमी कैसी

माथे पे पसीना क्यूं आंखों में नमी कैसी, 

कुछ ख़ैर तो ही तुम ने क्या हाल-ए-जिगर देखा.

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अब इत्र भी मलो तो तकल्लुफ़ की बू कहां, 

वो दिन हवा हुए जो पसीना गुलाब था.

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मिला-दिया है पसीना भले ही मिट्टी में, 

हम अपनी आंख का पानी बचा के रखते हैं.

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हलाल रिज़्क़ का मतलब किसान से पूछो,

पसीना बन के बदन से लह्ठ निकलता है.

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हो गया मिट्टी अगर मेरा पसीना सूख कर,

देखना मेरे दरुख्तों पर समर आ जाएगा.

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ये पसीना वही आंसू हैं जो पी जाते थे हम, 

न 'आरजू' लो वो खुला भेद वो ट्रटा पानी

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पसीने से मिरे अब तो ये रूमाल है,
नाज़-ए-उल्फत का ख़ज़ीना है.
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आंखों का अर्क़ रौगन-ए-बादाम से बेहतर,
आरिज़ का पसीना है गुलाब-ए-गुल-ए-अहमर
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रुख़ पर पसीना ज़िस्म में रअशा जबीं प चीं,
पूछा किधर चले तो ये बोले कहीं नहीं.






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