Thursday, May 29, 2025

तरस रही थीं ये आँखें किसी की सूरत को

 *

तरस रही थीं ये आँखें किसी की सूरत को

सो हम भी दश्त में आब-ए-रवाँ उठा लाए

सालिम सलीम

*

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन

लेकिन अपना अपना दामन

जिगर मुरादाबादी

*

आँखें खुलीं तो जाग उठीं हसरतें तमाम

उस को भी खो दिया जिसे पाया था ख़्वाब में

सिराज लखनवी

*

मुसीबत और लम्बी ज़िंदगानी

बुज़ुर्गों की दुआ ने मार डाला

मुज़्तर ख़ैराबादी

निगाह घर की तरफ़ है क़दम सफ़र की तरफ़

 *

सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का

यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का

शहरयार

*

मुझे भी लम्हा-ए-हिजरत ने कर दिया तक़्सीम

निगाह घर की तरफ़ है क़दम सफ़र की तरफ़

शहपर रसूल

*

सुब्ह होते ही निकल आते हैं बाज़ार में लोग

गठरियाँ सर पे उठाए हुए ईमानों की

अहमद नदीम क़ासमी

*

अगर बदल न दिया आदमी ने दुनिया को

तो जान लो कि यहाँ आदमी की ख़ैर नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

मिर्ज़ा ग़ालिब '25

*

मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ

काश पूछो कि मुद्दआ क्या है

*
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है

*
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
*
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना
*
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
*
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
*
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
*
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और
*
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
*
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं


Tuesday, May 27, 2025

मुझ सा जाँ-बाज़ दूसरा न हुआ

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यूँ तो आशिक़ तिरा ज़माना हुआ
मुझ सा जाँ-बाज़ दूसरा न हुआ

ख़ुद-ब-ख़ुद बू-ए-यार फैल गई
कोई मिन्नत-कश-ए-सबा न हुआ

मैं गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
दाम से छुट के भी रिहा न हुआ

ख़बर उस बे-ख़बर की ला देती
तुझ से इतना भी ऐ सबा न हुआ

उन से अर्ज़-ए-करम तो क्या करते
हम से ख़ुद शिकवा-ए-जफ़ा न हुआ

हो के बे-ख़ुद कलाम-ए-हसरत से

आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल सरा न हुआ

-

हसरत मोहानी

न जाने कौन सी मंज़िल पे इश्क़ आ पहुँचा

 *

इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए

आप को चेहरे से भी बीमार होना चाहिए

Munawwar Rana

*

न जाने कौन सी मंज़िल पे इश्क़ आ पहुँचा

दुआ भी काम न आए कोई दवा न लगे

-अज़ीज़ुर्रहमान शहीद फ़तेहपुरी

*

ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती

क्यूँ तिरा राहगुज़र याद आया

मिर्ज़ा ग़ालिब

*

अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है

तुम ऐसा कर नहीं सकते तो ऐसा हो नहीं सकता

मुज़्तर ख़ैराबादी

*



फिर कोई और न आया नज़र आईने में

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मुहदतें गुज़री मुलाक़ात हुई थी तुम से

फिर कोई और न आया नज़र आईने में

*

रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था

ज़मीन ले ली मगर आसमान छोड़ गया

- परवीन शाकिर

*

क्या तिरे शहर के इंसान हैं पत्थर की तरह

कोई नःमा कोई पायल कोई झंकार नहीं

- कामिल बहज़ादी

*

कोई समझे तो एक बात कहूँ

इश्क़ तौफ़ीक़ है गुनाह नहीं

- फ़िराक़ गोरखपुरी

दुष्यंत कुमार '25

*

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे

इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आएँगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेड़ो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे

थोड़ी आँच बची रहने दो थोडा धुआँ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफ़िर आएँगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आए तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आएँगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आएँगे

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़े तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौन्दे टूट गए
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे

हम इतिहास नहीं रच पाए इस पीड़ा में दहते हैं
अब जो धारायें पकड़ेंगे इसी मुहाने आएँगे

*


Monday, May 26, 2025

फ़कीर है या फिर नशे में

जिसका ये ऐलान है कि वो मज़े में है,

या तो वो फ़कीर है या फिर नशे में है।

Friday, May 16, 2025

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

 जिसे न आने की क़स्में मैं दे के आया हूँ

उसी के क़दमों की आहट का इंतिज़ार भी है

जावेद नसीमी
*
कोई हलचल है न आहट न सदा है कोई
दिल की दहलीज़ पे चुप-चाप खड़ा है कोई

ख़ुर्शीद अहमद जामी
*
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

दुष्यंत कुमार
*
सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है
आदमी आदमी को भूल गया

जौन एलिया

सरहद (शायरी, शेर)

मोहब्बत की तो कोई हद, कोई सरहद नहीं होती

हमारे दरमियान ये फ़ासले, कैसे निकल आए

- ख़ालिद मोईन

उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता

जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हैं आँखें

- अज्ञात

सरहदें अच्छी कि सरहद पे न रुकना अच्छा

सोचिए आदमी अच्छा कि परिंदा अच्छा

- इरफ़ान सिद्दीक़ी

रौशनी बांटता हूं सरहदों के पार भी मैं

हम-वतन इस लिए ग़द्दार समझते हैं मुझे

- शाहिद ज़की

शहर-ए-लाहौर से कुछ दूर नहीं है देहली

एक सरहद है किसी वक़्त भी मिट सकती है

- अज्ञात

जैसे दो मुल्कों को इक सरहद अलग करती हुई

वक़्त ने ख़त ऐसा खींचा मेरे उस के दरमियान

- मोहसिन ज़ैदी

हमारा ख़ून का रिश्ता है सरहदों का नहीं

हमारे ख़ून में गंगा भी चनाब भी है

- कंवल ज़ियाई

सरहदें रोक न पाएंगी कभी रिश्तों को

खुशबुओं पर न कभी कोई भी पहरा निकला

- अज्ञात

दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है

दिखाई देते हैं सब फ़ासले नज़र के मुझे

- ज़फ़र सहबाई

ज़मीं को ऐ ख़ुदा वो ज़लज़ला दे

निशां तक सरहदों के जो मिटा दे

- परवीन कुमार अश्क

शब के सन्नाटे में ये किस का लहू गाता है

सरहद-ए-दर्द से ये किस की सदा आती है

- अली सरदार जाफ़री

कुछ तो हो रात की सरहद में उतरने की सज़ा

गर्म सूरज को समुंदर में डुबोया जाए

- शाहिद कबीर

सरहद-ए-ग़ैब तक तुझे साफ़ मिलेंगे नक़्श-ए-पा

पूछ न ये फिरा हूं मैं तेरे लिए कहां कहां

- फ़िराक़ गोरखपुरी


परिंदा आशियाना चाहता है

सफ़र से लौट जाना चाहता है

परिंदा आशियाना चाहता है

कोई स्कूल की घंटी बजा दे
ये बच्चा मुस्कुराना चाहता है

उसे रिश्ते थमा देती है दुनिया
जो दो पैसे कमाना चाहता है

यहाँ साँसों के लाले पड़ रहे हैं
वो पागल ज़हर खाना चाहता है

जिसे भी डूबना हो डूब जाए
समुंदर सूख जाना चाहता है

हमारा हक़ दबा रक्खा है जिस ने
सुना है हज को जाना चाहता है

~ शकील जमाली

Thursday, May 15, 2025

जौन एलिया (शायरी, शेर)

 शर्म दहशत झिझक परेशानी 

नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं

आप वो जी मगर ये सब क्या है

तुम मिरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं

*

चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
दर्द बदनाम तो नहीं होगा
हाँ दवा दो मगर ये बतला दो
मुझ को आराम तो नहीं होगा
*
सर में तकमील का था इक सौदा
ज़ात में अपनी था अधूरा मैं
क्या कहूँ तुम से कितना नादिम हूँ
तुम से मिल कर हुआ न पूरा मैं 
*

वो किसी दिन न आ सके पर उसे
पास वादे को हो निभाने का
हो बसर इंतिज़ार में हर दिन
दूसरा दिन हो उस के आने का 

उस के और अपने दरमियान में अब
क्या है बस रू-ब-रू का रिश्ता है
हाए वो रिश्ता-हा-ए-ख़ामोशी
अब फ़क़त गुफ़्तुगू का रिश्ता है 
*

पास रह कर जुदाई की तुझ से
दूर हो कर तुझे तलाश किया
मैं ने तेरा निशान गुम कर के
अपने अंदर तुझे तलाश किया 
*

मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
तुझ से मिलने की आरज़ू की है
तेरे जाने के ब'अद भी मैं ने
तेरी ख़ुशबू से गुफ़्तुगू की है

Tuesday, May 6, 2025

मिर्ज़ा ग़ालिब

कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़

पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले

*

बाज़ीचा--अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे

होता है शब--रोज़ तमाशा मिरे आगे

*

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना

*

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ

रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन

*

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक

कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक

*

इशरत--क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

*

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर--नीम-कश को

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

*

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'

शर्म तुम को मगर नहीं आती

 


तू जो बदला तो ज़माना भी बदल जाएगा

 तू जो बदला तो ज़माना भी बदल जाएगा

घर जो सुलगा तो भरा शहर भी जल जाएगा

सामने आ कि मिरा इश्क़ है मंतिक़ में असीर
आग भड़की तो ये पत्थर भी पिघल जाएगा

दिल को मैं मुंतज़िर-ए-अब्र-ए-करम क्यूँ रक्खूँ
फूल है क़तरा-ए-शबनम से बहल जाएगा

मौसम-ए-गुल अगर इस हाल में आया भी तो क्या
ख़ून-ए-गुल चेहरा-ए-गुलज़ार पे मल जाएगा

वक़्त के पाँव की ज़ंजीर है रफ़्तार-ए-'नदीम'
हम जो ठहरे तो उफ़ुक़ दूर निकल जाएगा 

अहमद नदीम क़ासमी

तुझको किताबों में लिखता हूं मैं

सबको समझ नहीं आती पहेलियाँ

वे बात भी बजाते हैं लोग तालियां

ये नटखट अदायें, मरता हूं जिन पर
ये उम्र_ए_हिज्र और तेरी ये नादानियां

तुझको किताबों में लिखता हूं मैं
किताबें संभालती हैं मेरी सिसकियां

मुझको तो अपना मानते थे तुम
मुझ पे कैसी फिर ये दुस्वारियां

मैं आईने की पसंद था एक रोज
फकत,देने लगा आईना भी मुझे गालियां

उत्तर नहीं हूँ मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा

 उत्तर नहीं हूँ

मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

तुमने गढ़ा है मुझे
किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया
या
फूल की तरह
मुझको बहा नहीं दिया
प्रश्न की तरह मुझको रह-रह दोहराया है
नयी-नयी स्थितियों में मुझको तराशा है
सहज बनाया है
गहरा बनाया है
प्रश्न की तरह मुझको
अर्पित कर डाला है
सबके प्रति
दान हूँ तुम्हारा मैं
जिसको तुमने अपनी अंजलि में बाँधा नहीं
दे डाला!
उत्तर नहीं हूँ मैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

धर्मवीर भारती

न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए

 मैं नज़र से पी रहा हूँ ये समाँ बदल न जाए

न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए

मिरे अश्क भी हैं इस में ये शराब उबल न जाए
मिरा जाम छूने वाले तिरा हाथ जल न जाए

अभी रात कुछ है बाक़ी न उठा नक़ाब साक़ी
तिरा रिंद गिरते गिरते कहीं फिर सँभल न जाए

मिरी ज़िंदगी के मालिक मिरे दिल पे हाथ रखना
तिरे आने की ख़ुशी में मिरा दम निकल न जाए

मुझे फूँकने से पहले मिरा दिल निकाल लेना
ये किसी की है अमानत मिरे साथ जल न जाए

अनवर मिर्ज़ापुरी

राहत इंदौरी

दोस्ती जब किसी से की जाए

दुश्मनों की भी राय ली जाए

मौत का ज़हर है फ़ज़ाओं में

अब कहाँ जा के साँस ली जाए

बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ

ये नदी कैसे पार की जाए

अगले वक़्तों के ज़ख़्म भरने लगे

आज फिर कोई भूल की जाए

लफ़्ज़ धरती पे सर पटकते हैं

गुम्बदों में सदा न दी जाए

कह दो इस अहद के बुज़ुर्गों से

ज़िंदगी की दुआ न दी जाए

बोतलें खोल के तो पी बरसों

आज दिल खोल कर ही पी जाए

*

लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, 

यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है

*

मैं मर जाऊँ तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना

लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना

*

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है

चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है

*

अब ना मैं हूँ, ना बाकी हैं ज़माने मेरे,

फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे,

ज़िन्दगी है तो नए ज़ख्म भी लग जाएंगे,

अब भी बाकी हैं कई दोस्त पुराने मेरे।

*

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है,

चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है,

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं,

रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है।

*

मैं लाख कह दूं कि आकाश हूं ज़मीं हूं मैं

मगर उसे तो ख़बर है कि कुछ नहीं हूं मैं

 अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझ को

वहां पे ढूंढ़ रहे हैं जहां नहीं हूं मैं

 मैं आइनों से तो मायूस लौट आया था

मगर किसी ने बताया बहुत हसीं हूं मैं

 वो ज़र्रे ज़र्रे में मौजूद है मगर मैं भी

कहीं कहीं हूं कहां हूं कहीं नहीं हूं मैं

 वो इक किताब जो मंसूब तेरे नाम से है

उसी किताब के अंदर कहीं कहीं हूं मैं

 सितारो आओ मिरी राह में बिखर जाओ

ये मेरा हुक्म है हालांकि कुछ नहीं हूं मैं

 यहीं हुसैन भी गुज़रे यहीं यज़ीद भी था

हज़ार रंग में डूबी हुई ज़मीं हूं मैं

 ये बूढ़ी क़ब्रें तुम्हें कुछ नहीं बताएंगी

मुझे तलाश करो दोस्तो यहीं हूं मैं

*

अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो, जान थोड़ी है 

ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है 

लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में 

यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है 

मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन 

हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है 

हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है 

हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है 

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे

किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है 

सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में 

किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है

*

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है 

चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है 

एक दीवाना मुसाफ़िर है मिरी आँखों में 

वक़्त-बे-वक़्त ठहर जाता है चल पड़ता है 

अपनी ताबीर के चक्कर में मिरा जागता ख़्वाब 

रोज़ सूरज की तरह घर से निकल पड़ता है 

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं 

रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है 

उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो 

धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है 

*

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो 

ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो 

राह के पत्थर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं मंज़िलें 

रास्ते आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो 

एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तो 

दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो 

आते जाते पल ये कहते हैं हमारे कान में 

कूच का ऐलान होने को है तैयारी रखो 

ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ायम रहे 

नींद रखो या न रखो ख़्वाब मेयारी रखो 

ये हवाएँ उड़ न जाएँ ले के काग़ज़ का बदन 

दोस्तो मुझ पर कोई पत्थर ज़रा भारी रखो 

ले तो आए शायरी बाज़ार में 'राहत' मियाँ 

क्या ज़रूरी है कि लहजे को भी बाज़ारी रखो 

*

शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम

आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

*

न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा

हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा

मैं जानता था कि ज़हरीला साँप बन बन कर

तिरा ख़ुलूस मिरी आस्तीं से निकलेगा

इसी गली में वो भूका फ़क़ीर रहता था

तलाश कीजे ख़ज़ाना यहीं से निकलेगा

बुज़ुर्ग कहते थे इक वक़्त आएगा जिस दिन

जहाँ पे डूबेगा सूरज वहीं से निकलेगा

गुज़िश्ता साल के ज़ख़्मो हरे-भरे रहना

जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा

*

अगर खिलाफ हैं होने दो जान थोड़ी है, 

ये सब धुआं है कोई आसमान थोड़ी है, 

लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, 

यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है, 

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे, 

किराएदार हैं जाती मकान थोड़ी है, 

सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, 

किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है

*

अंगुलियां यूं न सब पर उठाया करो, 

खर्च करने से पहले कमाया करो, 

जिंदगी क्या है खुद ही समझ जाओगे, 

बारिशों में पतंगें उड़ाया करो, 

चांद सूरज कहां,अपनी मंजिल कहां, 

ऐसे वैसों को मुंह मत लगाया करो

*

चरागों को उछाला जा रहा है, 

हवा पर रोब डाला जा रहा है, 

न हार अपनी न अपनी जीत होगी, 

मगर सिक्का उछाला जा रहा है, 

वो देखो मयकदे के रास्ते में, 

कोई अल्ला हवाला जा रहा है, 

हमी बुनियाद का पत्थर हैं लेकिन, 

हमें घर से निकाला जा रहा है, 

जनाजे पर मेरे लिख देना यारो, 

मोहब्बत करने वाला जा रहा है


-राहत इंदौरी


तिरी जुदाई में किस तरह सब्र आ जाता

वो हम नहीं जिन्हें सहना ये जब्र आ जाता

तिरी जुदाई में किस तरह सब्र आ जाता

फ़सीलें तोड़ न देते जो अब के अहल-ए-क़फ़स
तू और तरह का एलान-ए-जब्र आ जाता

वो फ़ासला था दुआ और मुस्तजाबी में
कि धूप माँगने जाते तो अब्र आ जाता

वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया
बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता

वज़ीर ओ शाह भी ख़स-ख़ानों से निकल आते
अगर गुमान में अँगार-ए-क़ब्र आ जाता 


परवीन शाकिर

हम उन्हें वो हमें भुला बैठे

हम उन्हें वो हमें भुला बैठे

दो गुनहगार ज़हर खा बैठे

हाल-ए-ग़म कह के ग़म बढ़ा बैठे
तीर मारे थे तीर खा बैठे

आँधियो जाओ अब करो आराम
हम ख़ुद अपना दिया बुझा बैठे

जी तो हल्का हुआ मगर यारो
रो के हम लुत्फ़-ए-ग़म गँवा बैठे

बे-सहारों का हौसला ही क्या
घर में घबराए दर पे आ बैठे

जब से बिछड़े वो मुस्कुराए न हम
सब ने छेड़ा तो लब हिला बैठे

हम रहे मुब्तला-ए-दैर-ओ-हरम
वो दबे पाँव दिल में आ बैठे

उठ के इक बेवफ़ा ने दे दी जान
रह गए सारे बा-वफ़ा बैठे

हश्र का दिन अभी है दूर 'ख़ुमार'
आप क्यूँ ज़ाहिदों में जा बैठे

~ ख़ुमार बाराबंकवी