Tuesday, October 29, 2019

मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था

मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था 

वो उतनी दूर हो गया जितना क़रीब था 

मैं उस को देखने को तरसती ही रह गई 

जिस शख़्स की हथेली पे मेरा नसीब था 

बस्ती के सारे लोग ही आतिश-परस्त थे 

घर जल रहा था और समुंदर क़रीब था 

मरियम कहाँ तलाश करे अपने ख़ून को 

हर शख़्स के गले में निशान-ए-सलीब था 

दफ़ना दिया गया मुझे चाँदी की क़ब्र में 

मैं जिस को चाहती थी वो लड़का ग़रीब था 

मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था
वो उतनी दूर हो गया जितना क़रीब था
~अंजुम रहबर

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