Tuesday, October 8, 2019

काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं।।

काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं।

कुंभ-कर्ण तो मदहोशी हैं, मेघनाथ भी निर्दोषी है,
अरे तमाशा देखने वालों, इनसे बढ़कर हम दोषी हैं।

अनाचार में घिरती नारी, हाँ दहेज की भी लाचारी,
बदलो सभी रिवाज पुराने, जो घर-घर में आज अड़े हैं।
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं।।

सड़कों पर कितने खर-दूषण, झपट ले रहे औरों का धन।
मायावी मारीच दौड़ते, और दुखाते हैं सब का मन।

सोने के मृग-सी है छलना, दूभर हो गया पेट का पलना।
गोदामों के बाहर कितने, मकरध्वज से जाल कड़े हैं।
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं।।

लखनलाल ने सुनो ताड़का, आसमान पर स्वयं चढ़ा दी।
भाई के हाथों भाई के, राम राज्य की अब बरबादी।

हत्या, चोरी, राहजनी है, यह युग की तस्वीर बनी है,
आज जाति अरु धर्म मे देखो,
आपस मे ही बड़ी ठनी है।

न्याय, व्यवस्था में कमज़ोरी, आतंकों के स्वर तगड़े हैं।
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं।।

बाली जैसे कई छलावे, आज हिलाते सिंहासन को,
अहिरावण आतंक मचाता, भय लगता है अनुशासन को।

खड़ा विभीषण सोच रहा है, अपना ही सर नोच रहा है।
नेताओं के महाकुंभ में, सेवा नहीं प्रपंच बड़े हैं।
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं।।

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