आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
समेटना है अभी हर्फ़ हर्फ़ हुस्न तिरा,
ग़ज़ल को अपनी तिरा आईना बनाना है!
सुकूत-ए-शाम-ए-अलम तू ही कुछ बता कि तुझे,
कहाँ पे ख़्वाब कहाँ रतजगा बनाना है!
Post a Comment
No comments:
Post a Comment