Tuesday, November 12, 2019

बशीर बद्र की तीन गजलें

सर से पा तक वो गुलाबों का शजर लगता है
बा-वज़ू हो के भी छूते हुए डर लगता है

मैं तिरे साथ सितारों से गुज़र सकता हूँ
कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है

मुझ में रहता है कोई दुश्मन-ए-जानी मेरा
ख़ुद से तन्हाई में मिलते हुए डर लगता है

बुत भी रक्खे हैं नमाज़ें भी अदा होती हैं
दिल मेरा दिल नहीं अल्लाह का घर लगता है

ज़िंदगी तूने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पांव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है!



लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में

और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में

हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्रें बीत जाती हैं दिल को दिल बनाने में

फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन सांप रखता है उस के आशियाने में

दूसरी कोई लड़की ज़िंदगी में आएगी
कितनी देर लगती है उस को भूल जाने में! 




मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला

घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला

तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर उस के बा'द मुझे कोई अजनबी न मिला

ख़ुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैंने
बस एक शख़्स को मांगा मुझे वही न मिला

बहुत अजीब है ये क़ुर्बतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला

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